निजी वाहनों पे 'सरकार': अव्यवस्था के साइन बोर्ड
व्यवस्था से जुड़े लोग आखिर क्यों लिखते है अपने निजी वाहनों पर 'सरकार' 'पुलिस' 'जज' आदि??
हो सकता है व्यवस्था के लोग चाहते हों कि सड़क पर चलता आमजन आसानी से उन्हें पहचान ले और अव्यवस्था की स्थिति में उनसे सहायता ले। परंतु, चूंकि अपने देश मे कम ही दिखता है ऐसा (मतलब जज लिखी गाड़ी रोक के लोग शिकायत कर रहे हों कि अन्याय हो रहा है), इसलिए शायद ये कारण नही हो सकता।
हो सकता है कि व्यवस्था में बैठे कुछ व्यक्ति ये जताना चाहते हों कि वो महत्वपूर्ण व्यक्ति हैँ। अतः वो अपने वाहन पर 'सरकार' लिखवा देते हो। परंतु, चूंकि वाहन (कार आदि) के भीतर बैठा व्यक्ति आसानी से दिखता नही है, अतः व्यक्ति की शक्ल और गाड़ी पर लिखे शीर्षक के बीच मिलान आसान नही है। इसीलिए ये भी उपयुक्त सा कारण नही लगता है।
तो फिर क्या कारण हो सकता है कि व्यवस्थापक अपने निजी वाहनों पर इतने उत्साह से 'सरकार' लिखवाते है?
असल मे व्यवस्था के व्यवस्थापक जानते है कि उनकी व्यवस्था में भारी अव्यवस्था है। अतः निजी गाड़ियों पर 'सरकार' एक तरह का सुरक्षा कवच है। अव्यवस्था से सुरक्षा का कवच। अगर व्यवस्थापक इस कवच को न पहनें तो पूरी संभावना है कि वो भी व्यवस्था की अव्यवस्था का शिकार हो जाएं।
इस बात को समझने के लिए हमे व्यवस्था की कार्यप्रणाली को समझना होगा।
हमारी व्यवस्था में व्यवस्थापक कानून का निर्धारण करता है न कि कानून व्यवस्थापक के व्यवहार का निर्धारण। कानून एक तरह की ठेकेदारी व्यवस्था से स्थापित होता है। मतलब, बड़े व्यवस्थापक की जेब मे ज्यादा कानून रहता है और वो उसमे से कुछ कानून छोटे व्यवस्थापक को देता है ताकि वो उसके लिए सुचारू रूप से काम कर सके। इसी प्रकार पूरी व्यवस्था का गठन होता है। कहने को सब कानून से बंधे होते है और कानून के लिए काम करते है परंतु व्यवस्था असल मे इसी (पहले) तरीके से ही काम करती है और इसे अंजाम देने की तरह 2 की प्रक्रियाएं मौजूद रहती हैं।
अतः छोटे व्यवस्थापक के लिए बड़ा व्यवस्थापक सामान्यतः कानून से ऊपर होता है। इसे समझने में ऐसी घटना बड़ी सहायक है जिनमे छोटे व्यवस्थापक ने बड़े व्यवस्थापक को कानून बता देने का प्रयास किया हो। हाल ही में एक उदाहरण मिला है जिसमे एक छोटे सेवक ने अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए बड़े सेवक का यान चेक कर लिया। बड़े सेवक ने कोई प्रतिक्रिया नही की। परन्तु बड़े सेवक के निजी सेवकों ने चिर परिचित चिठी अस्त्र से छोटे सेवक के मन मस्तिक को ब्लास्ट कर दिया। शरीर तो वैसा ही रहा, पर छोटे सेवक का मन मस्तिष्क सब खत्म हो गया। शायद संदेश बिल्कुल साफ था: 'सेवक कानून से नही होते, कानून सेवकों से होता है। जितना बड़ा सेवक उतना ही कानून उसका गुलाम'।
चूंकि व्यवस्था की पूरी कार्यप्रणाली ही ऐसी है, अतः छोटा सेवक जनता को ऐसे ही देखता है जैसे बड़ा सेवक उसे देखता है। इसलिए, छोटा सेवक 'कानून हम से है' का ही संदेश जनता के बीच प्रसारित करता है और कानून का यही पेरसोनिफिकेशन लोगो को व्यवस्था की अव्यवस्था से रूबरू कराता है।
अतः जो व्यक्ति कानून को प्रभावित करने की छमता का प्रदर्शन कर देता है वो व्यवस्था की अव्यवस्था से बच जाता है और जो ऐसा प्रदर्शन नही कर पाता वो अव्यवस्था की गिरफ्त में आ ही जाता है।
अतः निजी वाहनों पे 'सरकार' जनता के बीच व्यवस्था बनाने के जिम्मेदार छोटे सेवकों के लिए होता है, कि 'सरकार' लिखे वाहन का यात्री भी अव्यवस्था की व्यवस्था का हिस्सा हैं और इसलिए उसे अव्यवस्था का शिकार नहीं बनाया जा सकता।
इसके अलावा,
क्योंकि अव्यवस्था डर पर सवार हो कर काम करती है, इसलिए निजी वाहनों पर 'सरकार' सिर्फ सुरक्षा कवच ही नही है उसका एक आतंकवादी प्रभाव भी है।
जैसे आतंकवादी सुनते ही आम लोगों में डर बैठ जाता है कुछ कुछ उसी तरह से निजी वाहनों पर 'सरकार' शब्द ये संदेश देता है कि वाहन स्वामी आम आदमी के जीवन मे अव्यवस्था बढ़ा सकने की क्षमता रखता है। अतः, कही न कहीं आम आदमी को ये छिपा संदेश दिया जाता है कि 'तू डर' और 'एडजस्ट कर' और 'पंगा तो लेने की सोचना भी मत', 'हम अव्यवस्था के व्यवस्थापक है, इसलिए कानून हम से है', और 'हमारा कुछ न बिगड़ेगा' आदि।
ये संदेश आम आदमी को ही नही दिया जाता, उन छोटे सेवकों को भी दिया जाता है जो कहीं अव्यवस्था को व्यवस्थित करने का फ़ितूड़ पाले होते है।
अब आ जाते है वाहनों पर लिखे 'गुज्जर', 'जाट', 'त्यागी', 'ठाकुर' और 'पंडित' (सामान्यतः पूर्वी प्रदेशों में) आदि जाति नामों पर (कृपया नोट⬇ जरूर देखें)। ये भी उसी दर्शन से चलित होते है जिसके चलते निजी वाहनों पर 'सरकार' लिखी जाती है।
ये जातीय नाम अपने 2 प्रभाव क्षेत्र में संदेश देते हैं कि 'वाहन स्वामी आम आदमी के जीवन मे अव्यवस्था बढ़ा सकने की क्षमता रखता है'।अतः आम आदमी को उनसे भी ऐसे ही एडजस्ट करना चाहिए जैसे वो 'सरकार' से एडजस्ट करता है। अतः जाति नामों का लिखा जाना व्यवस्था की अव्यवस्था के तर्क में ही निहित है।
प्रशासक सामान्यतः स्मार्ट होते है और अपनी व्यवस्थाओं में अधिक बदलाव का समर्थन नही करते। अतः, लेखक को अंदेशा है कि इस लेख के बाद प्रशासनिक ढांचा एक ड्राइव चला सकता है जिसमे निजी वाहनों से 'सरकार' और जाति नाम मिटवाने की कवायद की जाए।
परंतु, लेखक स्पष्ट कर देना चाहता है कि 'निजी वाहनों पर 'सरकार' अव्यवस्था का केवल मात्र लक्षण है, खुद में कोई रोग नही है।
और
ये मात्र ट्रैफिक व्यवस्था की अव्यवस्था को ही इंगित नही करता है, अपितु ये सामान्यतः व्यवस्था में व्याप्त अव्यवस्था से दो-चार होते लोगों की प्रतिक्रिया रणनीति को परिलक्षित करता है। अतः लक्षणों को मिटाने से कुछ न होगा, जब तक व्यवस्था में सुधार न किया जाएगा।
अगर इन लक्षणों को मिटा भी देंगे तो नए उभर आएंगे। उदहारण देखिये, हाल ही में नीली-लाल बत्ती हटी तो लोगों ने गाड़ियों पर ही लिखवा दिया 'सरकार'। पुलिस ने तो और भी नायाब (मोबाइल) तरीका निकाल लिया, गाड़ी के डैशबोर्ड पर बर्रेट या पुलिसिया टोपी रख कर ही सारा अहसास पैदा कर देने का।
अतः ये समझ लेना चाहिए कि जहाँ कही भी निजी वाहनों पर 'सरकार' जैसे सिग्नबोर्ड दिखाई दे वहां व्यवस्था में घोर अव्यवस्था व्याप्त है और व्यवस्था की दुरुस्तगी के बिना ये सिग्नबोर्ड हटने वाले नही।
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नोट:
लेखक किसी महान जाति का नाम छूट जाने पर छमा प्रार्थना करता है, और पाठक को पूरा इख्तियार देता है कि लेख को कॉपी करें और जिस महान जाति या प्रजाति को जोड़ना चाहे या हटाना चाहे खुशी 2 ऐसा कर लेख को अग्रसारित कर सकता है।
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संजय भाई , बिल्कुल सटीक बात है। “सिस्टम” जो बनना चाहिए था वह अभी तक पूरा बन नहीं पाया है । और शायद बन भी न पाए क्योंकि हमारी सामाजिक मानसिकता जो “गणों” और “गणराज्यों” वाली थी , वह गुप्तकाल तक पूरी तरह से समाप्त हो चुकी थी। तब से समाज में भी कर्ता धर्ता हैं वे एक “सिस्टम” है। आम गण से अलग - “विशेष” शायद बेहतर शब्द है। यह सिस्टम गुप्तकाल और शायद उससे थोड़ा पहले से - या तो “राजा “ द्वारा नियंत्रित था , या “पुरोहितों” द्वारा , फिर सुल्तान हुए , फिर साहिब बहादुर , फिर गवर्नर जेनरल । फिर गणराज्य बनाने की एक बड़ी कोशिश हुई। संविधान लिखा गया। फिर एक गलती हुई -“ सिस्टम“ में ऐम्बैसडर कार आ गयी - “सरकारी”। उस दिन से आज तक उस कार की छवि और उससे जुड़ी “पॉवर” लोगों के दिमाग़ पर है। गुप्तकाल की वापसी हुई - “विशेष” , “पुलिस” , “जज” , “वकील” ...आदि लेबल चल निकले - “सिस्टम” को पता है कि वो पूरा बन नहीं पाया है।
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