सामंतवाद हमारे दिल में है।
सामंतवाद या जागीरदारी एक व्यक्ति पर केंद्रित उत्पीड़न और लूट की व्यवस्था है जिसमें सामंत (एक व्यक्ति) को पूरी आजादी रहती है कि वो अपनी जागीर (प्रभावक्षेत्र) में जो चाहे करे। उसकी इच्छा, समझ, और विचार ही जागीर में व्यवहार का आधार होता है। चूंकि जागीर एक बड़ी लूट व्यवस्था का हिस्सा होती है (राजा के राज्य का) अतः लूट सामंत (या जागीर) व्यवस्था का जरूरी चरित्र है, हालांकि जागीरदार के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि वो कितना कम या ज्यादा क्रूर होकर इस लूट को अंजाम देता है। इस प्रकार, व्यक्तित्व का व्यवस्था में सम्मिश्रण कर जागीरदारी एक बेहतरीन उत्पीड़न व्यवस्था होती है। जो आम आदमी को आसानी से समझ नही आती। मतलब, उत्पीड़ित लोग अक्सर व्यक्ति (जागीरदार) को अपने दुखों का कारण मानते है और व्यवस्था के गहरे पक्ष को नही समझ पाते। जीवन दर्शन के रूप में सामंती व्यवस्था बड़ी प्रभावशाली होती है। सामंत पर केंद्रित हो कर देखें तो वह एक भरपूर जीवन जी रहा होता है। वो जो चाहे करे, जिसका जितना चाहे दोहन करे, कोई बंदिश नहीं होती। ऐसे जीवन की कल्पना तो भगवान के लिए ही की जा सकती है, जो अपने और ...