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अवैध निर्माण: राजकाज का बेहतरीन औजार

कानून सख्त बनाइये, इतना सख्त के अगर उसका उल्लंघन हो जाये तो सब कुछ बर्बाद कर देने की ताकत रखता हो। आम आदमी, जिसे व्यवस्था की बारीकी कम ही समझ आती है, वो अक्सर इतने से ही बहुत इम्प्रेस हो जाता है। अब कानून के पिलपिलेपन या नजरअंदाजी की प्रक्रिया शुरू कीजिए। मतलब, कानून अपनी जगह पे रहे, पर नियामक का स्मृतिलोप हो जाये और उन्हें ध्यान ही न रहे कि ऐसा कोई कानून भी है जिसके अनुपालन की जिम्मेदारी उन पर है। चूंकि स्मार्ट लोग (जिन्हें प्रैक्टिकल भी कहा जाता है) व्यवस्था के मूड पर अक्सर बारीक नजर रखते है, ऐसे में वो समझ जाते है कि अब समय है निर्माण का।  जब  ऐसे तथाकथित 'अवैध' निर्माण जनता की नजर में आते है तो वो अक्सर स्मार्ट लोगों को कोसती है और अपने मे स्मार्टनेस की कमी पर दुखी होती है। अक्सर 'जोखिम ही जीवन है' ज्ञान की वैधता भी तभी स्थापित होती है। जब अवैध निर्माण ठीकठाक मात्रा में हो चुका होता है तो ऐसे में राजा साहिब के जागने का वक्त होता है। यदा 2 ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः। अभिउथानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम। लगभग लगभग कृष्ण की तरह धर्म (कानून) की रक्षा हेतु, राजा साहि...

प्रशासनिक दम्भ

सिविल सेवाओं के लोग अक्सर ये बात कहते मिलते है कि प्रशासन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, प्रशासन सब गतिविधियों का आधार है, और प्रशासन अकेला अपरिहार्य संरचना है। ये सब बातें जो वे कहते है वो बिल्कुल सत्य है। सभ्य समाज की कोई भी गतिविधि बिना किसी प्रशासनिक व्यवस्था के संभव नही, और प्रशासन किसी भी समाज की न्यूनतम संरचना है। परंतु ये 'सत्य' एक छोटा सच है जिसपर जोर एक बडे सच को नजरअंदाज करने जैसा है। बड़ा सच यह है कि प्रशासन का औचित्य एक बड़ी व्यवस्था में निहित है और बिना उस समग्र के प्रशासन का कुल महत्व बहुत ही कम या छोटा होता है। इस बात को भौतिक रूप में समझे तो हड्डियों का ढांचा कहीं दिखाई नही देता परंतु अन्य प्रणालियों की संभावनाओं को बनाता है, और उनके स्वस्थ क्रियाकलाप का समर्थन करता है। अतः, न दिखते हुए भी स्वस्थ शरीर मे प्रमुखता से महसूस होता है। वहीं, दिखता हुआ हड्डियों का ढांचा ये बताता है कि उस पर आधारित अन्य प्रणालियां कमजोर हो चली है और तभी वो देखने मे डरावना प्रतीत होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखे तो प्रशासन का विकास राजतंत्र के साथ जुड़ा है। राजाओं की इच्छाओं के कार्यान्वयन, विद...

सकारात्मक बनाम नकारात्मक: 'सत्य' ही एकमेव निर्धारक

सकारात्मक क्या है, और नकारात्मक क्या है, ये समझना काफी मुश्किल काम है, भले ही हम अधिकतर बातों को सकारात्मक बनाम नकारात्मक में वर्गीकृत करने के आदि है। हम न सिर्फ बातों को अपितु दृष्टिकोण को, और व्यक्तित्वों को भी, नकारात्मक और सकारात्मक के रूप में वर्गीकृत करते रहते है। ये सब मनोविज्ञान विषय के उत्पादों से उपजी आधुनिक जीवन की हमारी समझ है जो बहुत बार गलत होती है।  सामान्यतः, सकारात्मक बात उसे कहते है जो घटित हो रही घटनाओं का समर्थन करती हो (ऐसी घटनाएं जिनसे सीधे सीधे या तुरंत कोई नुकसान दिखाई नही देता हो) और, नकारात्मक उसे कहते है  जो घटित हो रही घटनाओं को रोकने का समर्थन करती हो (ऐसी घटनाओं को जिनमें सीधे सीधे या तुरंत कोई नुकसान दिखाई नही देता हो)। इस प्रकार आगे बढ़ना, कुछ करना (किसी प्रकार का एक्शन) सब सकारात्मक बताया जाता है वहीं किसी भी एक्शन के दुष्परिणामों की विवेचना को एक्शन को रोकती नकारात्मक बात करार दिया जाता है । इस बात को भौतिक उदहारण से समझें तो किसी वाहन की रफ्तार (एक्शन)  सकारात्मक है और ब्रेक (एक्शन को रोकना) नकारात्मक है। ये भौतिक उदहारण हमे स्पष्ट करता ह...

सामंतवाद हमारे दिल में है।

सामंतवाद या जागीरदारी एक व्यक्ति पर केंद्रित उत्पीड़न और लूट की व्यवस्था है जिसमें सामंत (एक व्यक्ति) को पूरी आजादी रहती है कि वो अपनी जागीर (प्रभावक्षेत्र) में जो चाहे करे। उसकी इच्छा, समझ, और विचार ही जागीर में व्यवहार का आधार होता है। चूंकि जागीर एक बड़ी लूट व्यवस्था का हिस्सा होती है (राजा के राज्य का) अतः लूट सामंत (या जागीर) व्यवस्था का जरूरी चरित्र है, हालांकि जागीरदार के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि वो  कितना कम या ज्यादा क्रूर होकर इस लूट को अंजाम देता है। इस प्रकार, व्यक्तित्व का व्यवस्था में सम्मिश्रण कर जागीरदारी एक बेहतरीन उत्पीड़न व्यवस्था होती है।  जो आम आदमी को आसानी से समझ नही आती। मतलब, उत्पीड़ित लोग अक्सर व्यक्ति (जागीरदार) को अपने दुखों का कारण मानते है और व्यवस्था के गहरे पक्ष को नही समझ पाते।  जीवन दर्शन के रूप में सामंती व्यवस्था बड़ी प्रभावशाली होती है।  सामंत पर केंद्रित हो कर देखें तो वह एक भरपूर जीवन जी रहा होता है। वो जो चाहे करे, जिसका जितना चाहे दोहन करे, कोई बंदिश नहीं होती। ऐसे जीवन की कल्पना तो भगवान के लिए ही की जा सकती है, जो अपने और ...

जिजीविषा और इंसान

संकल (जंजीर) से बंधी भैंस भी जीवन में खुशियों के तर्क गढ़ती होगी। मसलन, बिना कुछ करे न्यार (चारा) मिल रहा है और लबारे (बच्चे) भी जन पा रही है। जीवन है,  इंसान भी ऐसे ही तर्क गढ़ता है।  क्योंकि  जीवन को हर हाल में खुशी से जीना जरूरी होता है । पर इंसानों ने जो विकास किया है उसमें तर्कपूर्ण आंकलन और वस्तुनिष्ठ ज्ञान का बड़ा योगदान है। पढ़े लिखो से उम्मीद होती है कि वे इंसानियत के इस पक्ष को आगे ले जाएंगे। अगर कहीं, पढ़े -लिखे भी जीवन की खुशी के तर्क गढ़ने में लग जाये, तो ऐसे देश-समाज का आगे बढ़ना रूक जाता है, औऱ वो आदिम की तरफ मुड़ जाता है। चाहे प्राइड और घृणा को पोषित करती  तुलनातमक बातें हों या झूठी सकारात्मकता को पुष्ट करता ज्ञान हो, ये सब बौद्धिकता या  तर्कपूर्ण आंकलन को कुंद करते हैं।  और  आज जब इन विषयों पर रेडीमेड पोस्टों की भरमार है, तो माना जा सकता है कि ये सब एक बिल्कुल व्यवस्थित प्रयास है, बौद्धिकता को कुंद करने का, और देश को आदिम समाज की ओर धकेलने का। अतः देश, समाज से गर लगाव हो,  या  इंसानी जीवन की बेहतरी मन मे हो,  तो इस तरह के ज्ञान...

बड़ा गुब्बारा

मन बहुत लगाता है बड़ा गुब्बारा। पर गुब्बारा खुद कुछ नही करता। सब गुब्बारे के मालिक किया करते है,  भाव  जो गुब्बारे पर दिखते है,  और जो अक्सर तमाशे में शामिल लोगों के मन को छूते है। वो भी उकेरे होते है गुब्बारे के मालिकों के द्वारा। पूरी व्यवस्था होती है इस तमाशे में,  इवेंट मैनेजर से लेकर जेब कतरों तक। गुब्बारे का अपना कुछ नही होता, वो न किसी की जान बचा सकता है,  न सोच समझ सकता है,  और न मानव भाव होते है उसमें,  इस तरह से वो पूर्णतः निरपेक्ष होता है,  एक पूर्णता को प्राप्त किये व्यक्ति की तरह। पर मन बहुत लगाता है  गुब्बारा। जीवन नश्वर है,  सब सुख-दुख छणिक हैं, सारे आंकलन और सारा ज्ञान थोड़े दिनों के काम का है। जीवन मे बस मन ही एक बड़ी चीज है। जो जीवन वैतरणी को पार लगाता है। अतः मन लगाए रखिये, गुब्बारे का तमाशा देखते रहिये। 🙏🏽

देश की दुर्दशा और मेरा सकारात्मक व्यक्तित्व

देश मे आम आदमी के साथ क्या 2 हो रहा है आप बताते रहते है पर मुझे ये प्रासंगिक नही लगता।   मुझे तो बस अपने देश से प्यार है, और मैं इसे महान देखना चाहता हूं। व्यवस्था की अव्यवस्था का आंकलन मुझे सुहाता नही है, अव्यवस्था के दोषी की पहचान जैसी नकारात्मक बात मेरे लिए अर्थपूर्ण नही है, और सरकार के कर्मो के बारे में तो में बिल्कुल चुप ही रहना पसंद करता हूँ। हाँ, अगर जनता की लापरवाही पर बात करनी चाहो, तो मेरे पास भरपूर तर्क है और मैं जोरदार दावे कर सकता हूँ।  असल मे मेरा जीवन मेरे भाग्य से चलता है, और मेरे रिश्तेदारों और जानकारों का कॅरोना पीड़ित हो जाना या कोई और बीमारी हो जाना और उन्हें स्वास्थ सेवा न मिल पाना सब उनके पिछले जन्मों के कर्म है (शायद मैं उनके पूर्व जन्म के कुकर्मो को जान ही न पाता अगर ये मौका न आता)। इसमे सरकार या राज्य की कोई भूमिका मुझे नजर नही आती है। में अपनी निजी जिंदगी के निर्णयों में जरूर काफी दिमाग लगाता हूँ, अच्छा और बुरा सब सोचता हूँ। समाज और वातावरण के प्रभाव मेरे अधिकतर निर्णयों के निर्धारक होते है। परंतु, देश और समाज के बारे में सोचते हुए मैं बस दिल से ...