सामंतवाद हमारे दिल में है।

सामंतवाद या जागीरदारी एक व्यक्ति पर केंद्रित उत्पीड़न और लूट की व्यवस्था है जिसमें सामंत (एक व्यक्ति) को पूरी आजादी रहती है कि वो अपनी जागीर (प्रभावक्षेत्र) में जो चाहे करे। उसकी इच्छा, समझ, और विचार ही जागीर में व्यवहार का आधार होता है। चूंकि जागीर एक बड़ी लूट व्यवस्था का हिस्सा होती है (राजा के राज्य का) अतः लूट सामंत (या जागीर) व्यवस्था का जरूरी चरित्र है, हालांकि जागीरदार के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि वो  कितना कम या ज्यादा क्रूर होकर इस लूट को अंजाम देता है। इस प्रकार, व्यक्तित्व का व्यवस्था में सम्मिश्रण कर जागीरदारी एक बेहतरीन उत्पीड़न व्यवस्था होती है। जो आम आदमी को आसानी से समझ नही आती। मतलब, उत्पीड़ित लोग अक्सर व्यक्ति (जागीरदार) को अपने दुखों का कारण मानते है और व्यवस्था के गहरे पक्ष को नही समझ पाते। 

जीवन दर्शन के रूप में सामंती व्यवस्था बड़ी प्रभावशाली होती है। सामंत पर केंद्रित हो कर देखें तो वह एक भरपूर जीवन जी रहा होता है। वो जो चाहे करे, जिसका जितना चाहे दोहन करे, कोई बंदिश नहीं होती। ऐसे जीवन की कल्पना तो भगवान के लिए ही की जा सकती है, जो अपने और सब के जीवन का निर्धारण अपनी मनमर्जी से करता हो। ऐसा जीवन सामंत के जीवन को आम लोगों के बीच एक आदर्श जीवन  या अंतिम उद्देश्य के रूप में स्थापित करता है । सामंती समाज मे आम आदमी का जीवन स्तुति से चलता है (चूंकि सामंत की इच्छा सर्वोपरि होती है) और इस मान्यता से चलता है कि प्रकृति ने उसके लिए यही निर्धारित किया है (ये मान्यता ही ऐसी व्यवस्था में आत्मद्वंद कम कर सकती है)। वो सामंत के होने को एक प्राकृतिक व्यवस्था मानता है (एक मालिक जो जैसा चाहे करे) और शक्तिशाली की उपासना को जीवन जीने की एक बेहतरीन समझ अथवा रणनीति मानता है। इन्ही स्थापित मान्यताओं या समझ के साथ व्यक्ति अपने जीवन मे आगे बढ़ने का प्रयास करता है, और जब भी उसे मौका मिलता है (उसकी स्थितियां बेहतर होती है या शादी ब्याह जैसा कोई मौका होता है) तो वो सामंत जैसे आदर्श जीवन को जीने का प्रयास करता है। इस प्रकार सामंतवाद एक पूर्ण जीवन दर्शन होता है जिसमे आम आदमी सामंत बनने के आदर्श को मन मे बसाए होता है।

समाज के दृष्टिकोण से देखें तो सामंतवाद लोगों के प्रबंधन की एक स्थिर व्यवस्था है जो शक्ति  पर केंद्रित है। इसमे सामंत बदलते रहते है परंतु आमजन  और सामंत के बीच का संबंध स्थिर रहता है, और देश-समाज के आगे बढ़ने (विकसित होने) में सामंतवादी व्यवस्था कोई योगदान नही करती (अधिकतर ऊर्जा या तो स्तुति में लगती है या सत्ताभोग में)।

इसके विपरीत, न्यायोचित कानूनी संरक्षण से निर्धारित समाज व्यवस्था (जिसे आधुनिक व्यवस्था भी कह देते है) देश-समाज को विकासशील  बनाते है। न्यायोचित कानून पर  आधारित व्यवस्था व्यक्ति को ऐसा संरक्षण देती है जिसमे स्तुति महत्वहीन हो जाती है और व्यक्ति में अपने मन से निर्धारित उत्प्रेरणा को अंजाम देने की संभावना बढ़ जाती  है। व्यक्तियों का ऐसा विविध  विशेष योगदान ही किसी समाज के विकसित (या अल्पविकसित) होने की मूल परिभाषा है। न्यायोचित कानून पर  आधारित व्यवस्था सिर्फ आमजन के ही विशिष्ट योगदान  की संभावनाओं को नही बढ़ाती, अपितु शक्ति के प्रयोग की प्रकृति को भी सही दिशा में बदलती है। चूंकि ऐसी व्यवस्था में सत्ता या पद की प्राप्ति के आधार विशेष योगदान होते है अतः पदधारी सामान्यतः मन आधारित विकास से उपजा व्यक्ति होता है (जो इस व्यवस्था का सम्मानकर्ता भी होता है) तथा कानून भी इस प्रक्रिया का समर्थन करता है (शक्ति के नियमबद्ध प्रयोग का)। अतः यहां शक्ति का प्रयोग भी मन से निर्धारित उत्प्रेरणा को आगे बढ़ाने वाला ही होता है। और इस प्रकार ये समाज के निरंतर विकसित होते रहने की संभावनाओं को बलवती करता है।  पश्चिमी या विकसित देशों की व्यवस्था इस मन निर्धारित उत्प्रेरणा द्वारा समाज के विकास का एक बेहतर उदहारण हो सकता है।

विकासशील देशों या समाजों का हाल।

कहने को नए आजाद हुए देशों में कानून का राज स्थापित हो गया है और सामंतवाद को मान्यता नही है (भारत मे भी 70 साल पहले सामंतवाद प्रतिबंधित हो गया है), परन्तु यहाँ सामंतवाद मरा नही है, अपितु फलफूल रहा है।

सामंतवाद की सुरक्षित सीट (आधार) लोगों के दिल हैं। सामंत के जीवन को आमजन के मन में आदर्श स्थान न केवल सामंत बन जाने के मौके को अंतिम उद्देश्य बनाता है (ऊपर वर्णित), वो सत्ताधारियों की चाटुकारिता कर अपना काम निकालने के व्यवहार को श्रेष्ठ विद्वता का स्थान देता है, और सत्ताधारियों से सामंत जैसे व्यवहार की अपेक्षा भी पैदा करता है (पदधारी का लोकतांत्रिक सम्मानजनक व्यवहार या निजी लाभ से परहेज अक्सर उपहास का विषय बनता है)। अतः भले ही आधिकारिक स्थिति कानून के राज की घोषणा करती हो, असल व्यवस्था सामंतवादी समझ और व्यवहार  में प्रदर्शित होती है। 

अल्पविकसित देशों में ऐसा सामंतवादी व्यवहार इसलिए होता है क्योंकि (1) व्यवस्था से जनित मनोभाव एकाएक नही बदलते। अक्सर अनुभवों की पूरी श्रृंखला (एक व्यवस्था में लंबा जीवन) जीवन के आदर्शों और रणनीतियों का निर्धारण करती हैं। अतः सामंतवाद का मनोवैज्ञानिक खात्मा पीढ़ियों का समय लेता है। (2) अल्पविकसित देशों में कानून का राज पूर्णतः स्थापित नही हो पाया होता है, तथा (3) (इसीलिए) इन देशों में  पूंजीवाद सामंतवाद को  गुर्गे की तरह प्रयोग में लाता है (वही पूंजीवाद जो पश्चिम में सामंतवाद के खात्मे का कारण था)। 

चूंकि सामंतवाद और कानून के राज की मिश्रित व्यवस्था के विरोधाभासों से पार निकलना आसान नही होता, इसीलिए इन देशों में विचारशील मध्यम वर्ग भी अक्सर अपने विचार में भ्रमित रहता है और सामंतवादी प्रवृत्तियों और विकासोन्मुखी व्यवस्था के तर्कों के बीच झूलता सा रहता है।

गरीबी को अल्पविकसित देशों की दुर्दशा का मुख्य कारण माना जाता है परंतु इस दुर्दशा से निकलने का एक बेहतर रास्ता न्यायोचित कानूनी संरक्षण से निर्धारित समाज व्यवस्था ही है जो विकासोन्मुखी प्रक्रियाओं को पुष्ट करने वाला होता है। अस्तु, वही गरीब देश विकसित हो पाते हैं जिनमे न्यायोचित कानून का राज बेहतर तरीके से स्थापित होता है। अतः अल्पविकसित देशों के पढ़े लिखे  मध्यमवर्ग को  न्यायोचित कानून पर आधारित समाज व्यवस्था का पुरजोर समर्थक होना चाहिए और इसके अतिक्रमण के प्रति सदा सजग रहना चाहिए। पढ़े लिखों के देशप्रेम की सच्चे अर्थों में अभिव्यक्ति तो शायद यही होगी।

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