दक्षिणपंथ की प्रकृति। एक विचार।
बिना स्थापित विषयों द्वारा दी गयी व्याख्याओं में जाये बात शुरू की जाए।
दक्षिणपंथ या रइटिसम के मूल में सत्ता या समाज पर कब्जा कर अपने हितों का पोषण करने की भावना है।
ये एक व्यक्ति से शुरू हो कर एक समूह की भावना बन सकती है।(इस पर आगे चर्चा करेंगे)।
इस लिहाज से सारे राजा, और छत्रप रइटिस्ट है। इतिहास में यही भावना सत्ता के केंद्र में रही है, और आप हरिश्चन्द्र या कुछ इक्का दुक्का राजा को छोड़ दें तो यही भावना मूल है।
एक व्यक्ति, या राजा, सत्ता पर कब्जे के लिए युद्ध करता और जो साथ देते वो सब सत्ता हासिल होने पर उस भोग के भागीदार होते। राजा इन सब मे सर्वाधिक शक्तिशाली होता। जो सत्ता पर कब्जा बनाये रखने के लिए अपनी सेना को राज्य से प्राप्त राजस्व से और पुष्ट करता रहता।
जो इस पूरे प्रयोग या संगठन का हिस्सा न बन पाते वो नए नेता के साथ मिलकर ऐसा ही सब प्रयोजन करते कि वे सत्ता पर काबिज हो सके। और इसी प्रकार 'एक राजा से दूसरे राजा', इतिहास भरा पड़ा है।
इस पूरे सत्ता इतिहास में जनता का उपकार कभी मूल विषय नही रहा। देश और समाज के बहुसंख्यक लोगों को इस रइटिसम से हो रहे नुकसान से दुखी हो कर ही फ्रांस में लोकतंत्र की स्थापना की घटना हुई, और फिर वो सारी दुनिया मे फैल गया।
ये विचार कि राजा या सरकार का चुनाव जनता के द्वारा और जनता के लिए हो या शक्तियों का विकेंद्रीकरण और पृथकीकरण हो , लोकतंत्र के मूल में रइटिसम को नियंत्रित करने की भावना को ही दर्शाता है।
लोकतंत्र के आने के बाद रइटिसम समाप्त नही हुआ बस इसका रूप बदल गया। अब सेनाओं के स्थान पर राजनीतिक दल और समूहों ने ले ली और युद्धों का स्थान वोट पकाने और काटने ने ले लिया। मूल भावना जस की तस रही - सत्ता पर काबिज हो अपने हितो का पोषण।
हां, ये जरूर हुआ कि लोकतंत्र के आने के बाद सत्ता संघर्ष की गति बढ़ गयी और उसी के चलते विविध रंग रूप में ये रइटिसम व्यक्त हुआ कि समझ पाना भी मुश्किल हो गया।
लोकतंत्र में रइटिसम के दो रूपों को समझ कर इस के पूरे इंद्रधनुष को समझा जा सकता है। एक है व्यक्तिगत भावना और दूसरा है समूह या दल की भावना।
▶ प्रारम्भ करें क्लासिकल रइटिस्ट दलों से।
मनुष्य की प्रकृति है कि कम से कम संसाधन खर्च कर अधिक से अधिक फायदा उठाया जाए, और जब उद्देश्य बस सत्ता पर कब्जा हो तो लोकतंत्र में रइटिसम के मुद्दे सामान्यतः समाज की मौजूदा स्थिति के आस पास से ही शुरू होते है। मसलन, समाज मे मौजूद नाना प्रकार के फर्क जैसे सांस्कृतिक, साम्प्रदायिक, छेत्रीय इत्यादि को गहरा कर, सांस्कृतिक प्रतीकों पर बहुत ज्यादा जोर दे, या व्यवस्था की कमियों (या ऐसा ही सब जो समाज मे मौजूद है) को एक नए तरीके से प्रस्तुत कर (सामान्यतः सरलीकृत कुतर्कों के माध्यम से) जनमत को इस प्रकार परिवर्तित करने का प्रयास जो अन्य समूहों के लिए नुकसानदेह और अपने दल के पक्ष में हो।
ऐसा नही है कि वो गरीब या अन्याय पर चुप रहते है। पर, हाँ, उतना ही करते है जितना वोट को प्रभावित कर सके। उससे ज्यादा नही।
समाज या व्यवस्था के सुधारात्मक परिवर्तन की कोई स्पष्ट योजना इनके पास नही होती है और न ही ये मुद्दों पर गंभीर चर्चा के पक्ष में होते हैं।
जिस प्रकार राजतंत्र में राजा को दैवीय गुणों से परिपूर्ण पेश किया जाता था कुछ कुछ उसी प्रकार व्यक्तित्व की महिमा को केंद्र बनाकर प्रयास होता है कि जनता उन पर विश्वास कर ले।
व्यक्तिगत रइटिसम की स्थिति इन दलों में उसी प्रकार होती है जैसे विद्रोही सेना का नेता, या सत्ता में स्थापित हो जाने पर राजा और उसका दरबार। जिसकी जब तक चल रही है तब तक बाकी सब नतमस्तक।
लोकतंत्र में चूंकि सत्ता संविधान से बंधी होती है इसलिए रइटिस्ट नेता भी पार्टी से इतर राजा की तरह व्यवहार नही कर पाता। पर कुछ विशेष परिस्थितियों में जब लोकतांत्रिक संस्थाएं न्यूनतम स्तर पे हो और रइटिसम की भावना अति बलवती हो तब रइटिस्ट नेता राजा की तरह व्यवहार कर सकता है, अर्थात राजा के शब्द ही सर्वोच्च कानून है के विचार को मान्यता देना और यही फासीवाद कहलाता है।
▶ रइटिसम गैर रइटिस्ट दलों में भी खूब पाया जाता है।
ऐसे दल जो देश या समाज के विकास का एक खाका पेश करते है, और कुछ हद तक उसको जनता के बीच रखते है, और उस आधार पे जनमत जुटाने का प्रयास करते है, उनमें भी रइटिसम खूब रहता है।
घोषित रूप से तो ये दल समाज के विकास के प्रति कटिबद्धता दिखाते है परंतु नेतृत्व और दल का संगठन इस घोषणा का समर्थन करते नही दिखता।
मसलन व्यक्तिगत रइटिसम पूरे दल की संरचना का मूल रहता है।
किसी क्लासिक रइटिस्ट दल की तरह शीर्ष नेतृत्व सर्वोपरि रहता है और दल का पूरा ढांचा इस नेता की इच्छाओं की छाया मात्र रहता है। दल के घोषित उद्देश्य के प्रति समर्पण दल में किसी नेता की स्थिति का पैमाना नही होता।
ऐसे दलों में ये व्यक्तिगत रइटिसम का प्रभाव बढ़ता जाता है और दल के घोषित उद्देश्य के प्रति दल का समर्थन घटता जाता है, साथ ही साथ व्यक्ति पूजा बढ़ती जाती है।
उदहारण तमाम मौजूद है भारतिय राजनीति में।
लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के चलते ये प्रश्न बड़ा वाजिब है कि जब रइटिसम का मूल उद्देश्य लोकहित नही है तो भी लोग क्योंकर रइटिसम का समर्थन करते हैं।
जनता के व्यवहार का एक कारण नही होता, और जनमत की अपनी एक गत्यात्मकता होती है,
▶ फिर भी कुछ मूल तत्व रइटिसम का समर्थन करते है।
राजनीतिक चेतना की कमी या किसी भी कारण से आई अस्पष्टता दूरदर्शिता का ह्रास करती है और ऐसे में रइटिसम जो दैनिक जीवन की छोटी 2 बातों को बड़ी 2 घटनाओं से जोड़ने की विशेषज्ञता लिए होता है, प्रभावशाली हो जाता है। उदहारण के तौर पर, कहा जाना कि फलां तरह के लोगों की मौजूदगी से अपशकुन हो रहे है और उसी के चलते देश मे विपदाएँ आ रही हैं, एक खास वर्ग को बिना कुछ किये ही बताने वाले के पक्ष में कर सकता है।
सत्ता से करीब से जुड़ा, या कहें इलीट वर्ग प्राकृतिक रूप से रइटिस्ट होता है। चूंकि ये समाज का प्रभावशाली वर्ग होता है अतः आम जन की समझ को बहुत प्रभावित करता है। ये प्रभाव तब और ज्यादा हो जाता है जब आम आदमी की 'अपनी अकल काम नही करती।' ऐसा सामान्यतः तब होता है जब उसका विश्वास हर तरफ छला जाता है।
समाज मे मौजूद घृणाएँ, और विवाद सब रइटिसम के पोषक है।
चूंकि रइटिसम का एक शानदार इतिहास है और हितों का पोषण ही सामान्यतः सर्वोपरि उद्देश्य होता है अतः राजनीतिक क्रिया कलापों को आमजन इसी तरीके से व्याख्या करता है और यह रइटिस्ट को एक सार्वभौमिक राजनेतिक व्यवहार की मान्यता देता है।
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