भारत के अभिजात्य (मध्यम) वर्ग की बदली चाल: देश के वर्तमान संकट का आधार।
नोट: भारत का अभिजात्य वर्ग अब तक सामाजिक रूप से अपरिवर्तनीय है (उसकी संरचना में बड़े परिवर्तन नही हुए हैं)
हाँ,जातियों के नाम जरूर आएंगे, पर इस लेख को (सामाजिक-राजनीतिक) ढांचे की समझ के रूप में देखा जाए। जातियों की चिरपरिचित समझ के चश्मे से अगर इसे देखा गया तो इसका मूल संदेश खो जाएगा।
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भारत के समाज मे आधुनिक काल से पहले अधिकतर दो ही स्पष्ट वर्ग रहे हैं उत्पीड़क और उत्पीड़ित।
उत्पीड़क वर्ग का आर्थिक और सामाजिक ढांचे पर वर्चस्व तो था ही, ये वर्ग सांस्कृतिक, धार्मिक, और बौद्धिक रूप से आम जन के बीच एक्टिव भी था और इसी के चलते नकारात्मक रूप (संसाधनों पर कब्जे) से प्रभावित करने के अलावा सकारात्मक रूप से भी यह वर्ग समाज को नेतृत्व प्रदान करता था (जीवन मरण के झूठे सच्चे ज्ञान द्वारा)।
इस उत्पीड़क अभिजात्य वर्ग के पास सेनाएं नही थी। वो राजाओं के पास थी। राजा नित बदलते रहे, और अभिजात्य वर्ग हर नए राजा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव दिखा राजाओं को पक्ष में करता रहा।
किसी भी राजा के लिए ये अच्छी स्थिति थी कि वो समाज को इस अभिजात्य वर्ग की मदद से मैनेज कर सकता था और राज्य में किसी विद्रोह की संभावना को न्यूनतम रख सकता था।
संसाधनों पर कब्जा और सांस्कृतिक, धार्मिक, और बौद्धिक नेतृत्व के दोहरे प्रभाव के चलते उत्पीड़क वर्ग पिछले लगभग 2000 साल तक समाज पर अपना वर्चस्व बनाये रहा।
राजा (मुस्लिम शासकों सहित) आते जाते रहे पर उनका समाज पर कोई प्रभाव नही रहा। समाज सदा इस अभिजात्य वर्ग के नेतृत्व के अधीन ही रहा।
समझ के लिहाज से एक महत्वपूर्ण बात जो इस सब से निकलती है वो ये है कि भारत मे उत्पीड़नात्मक व्यवस्था का एक स्थिर मॉडल भली भांति स्थापित रहा।
चूंकि इन दो हजार सालों में उत्पीड़ित समाज अपनी दुर्गति से मुक्ति का कोई बड़ा प्रयास नही कर पाया, यह बात शानदार गवाही देती है इस उत्पीड़क मॉडल के प्रभावशाली होने की और इस मॉडल की सत्यता (या पुनः स्थापना) के प्रति आम तौर पर एक गहरे विश्वास की।
अंग्रेजो के भारत पर कब्जे के बाद इस मॉडल को बड़ा आघात लगा। अंग्रेजो ने बंगाल राज्य का जिस धुरंदर तरीके से दोहन किया उससे वहां का अभिजात्य वर्ग भी अछूता नही रहा। उनकी राजाओं से सेटिंग की पुरानी रणनीति प्रभावहीन हो गयी। इस सब के चलते बंगाली ब्राह्मणों के एक वर्ग ने पाश्चात्य ज्ञान का रूख किया और नई व्यवस्था में पैठ के रास्तों को ढूंढने के अलावा पश्चिमी आधारों पर राष्ट्र की समझ को विकसित करने का भी काम किया।
रोमांटिक राष्ट्रवाद और भारत माता की कल्पना भी तभी उपजी। बंगाल से उपजा राष्ट्रवाद पूरे भारत मे फैला और इसका नेतृत्व भी उन्हीं लोगों ने किया जिन्हे पुराने उत्पीडक अभिजात्य वर्ग का सदस्य कहा जा सकता है।
अतः अंग्रेजों के आने के बाद अभिजात्य वर्ग की चाल बदली। अभिजात्य वर्ग का नेतृत्व लोकतांत्रिक और लिबरल लोगों के हाथ में चला गया।
स्वतंत्रता मिलने के बाद देश को केंद्र में रख कर चीजे चली और पुराना (उत्पीड़क विचार का समर्थक) अभिजात्य वर्ग लिबरल और डेमोक्रेटिक आइडियल का समर्थन करता नजर आया।
बीच मे अभिजात्य वर्ग की जातीय संरचना को चैलेंज करते विचार भी आये। जैसे, चरण सिंह और जे पी आंदोलन से उभरी तथाकथित मध्यम वर्गीय जातियों की चेतना या फिर (उत्तर में) कांशीराम के नेतृत्व में उपजी दलित चेतना। दोनों ही अभिजात्य वर्ग की संरचना को चैलेंज करते थे पर दोनो ही तरह के आंदोलनों में निज जाति चेतना के आधार (सामाजिक आर्थिक विचार को तिलांजलि दे मात्र जाति आधारों पर गोलबंदी) के चलते ये दोनों चैलेंज एक वृहद राष्ट्रीय विचार या संरचना नही दे पाए और न ही अभिजात्य वर्ग की जातीय संरचना (और उससे जुड़े सांस्कृतिक तत्व) को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर पाए।
उल्टा, इन चैलेंज से अभिजात्य वर्ग में उस तबके को बल मिला जो स्वतंत्रता के बाद से स्थापित नेतृत्व (लिबरल और लोकतांत्रिक विचारों का समर्थक) का विरोधी था और डेमोक्रेटिक लिबरल आइडियल का नुकसान गिना रहा था अभिजात्य वर्ग के भीतर (सामूहिक आत्ममोह के शोध देखे)।
अभिजात्य वर्ग में असली फर्क नब्बे के दशक में लिब्रलाइजेशन के बाद शुरू हुआ।
निजीकरण ने बड़े आइडियल और देश की समग्र समझ रखने वाले नेतृत्व (लिबरल नेतृत्व) को पीछे धकेल दिया और येन केन प्रकारेण पैसा कमा लेने की क़ाबलियत रखने वालों को अभिजात्य वर्ग में नेतृत्व प्राप्त हो गया। (अभिजात्य वर्ग के नेतृत्व में लिब्रलाइजेशन के कारण डीलर, और एजेंट टाइप विचार का प्रभुत्व एक अलग से चर्चा का विषय है)।
इस नए नेतृत्व का प्रभाव ये हुआ कि अभिजात्य वर्ग को वही पुराना चिरपरिचित सांस्कृतिक उत्पीड़क मॉडल आकर्षक लगने लगा, जिसमे उनकी स्थिति सुरक्षित थी बस राजा का गुणगान करना था।
इसी के चलते आज अभिजात्य वर्ग डेमोक्रेटिक और लिबरल आइडियल को भरपूर गाली देता है और सरकार और उसकी नीतियों के आंकलन से पूर्णतः विरक्त रहता है और राजा के व्यक्तित्व का अतिशयोक्तिपूर्ण गुणगान करने को उत्सुक रहता है ।
इस मॉडल के आकर्षण का दूसरा प्रभाव यह है कि आज अभिजात्य वर्ग पुराने उत्पीड़क मॉडल की क्लासिक विधियों (जैसे प्रतीक पूजा, जीवन मरण का झूठा सच्चा ज्ञान) पर बड़ा जोर लगाता है, और इस प्रकार समाज की सांस्कृतिक, धार्मिक, और बौद्धिक समझ को अपने प्रभाव में लेने के प्रयास करता नजर आता है।
पुराने उत्पीड़क मॉडल की पूर्व में शानदार सफलता अभिजात्य वर्ग में ये विश्वास पैदा करती है कि ये मॉडल चिरकाल तक उनके हितों को सुरक्षित रख पायेगा।
इसीलिए शायद सब आर्थिक नुकसान (व्यापार में गिरावट, नौकरियों की कमी, खराब सेवा शर्तें, शिक्षा और स्वास्थ्य की घटती सुविधाये) झेल कर भी यह वर्ग पुरजोर तरीके से पुरातन संस्कृतिक प्रतीकों के महत्व पर बात कर रहा है और कानून के राज, मौलिक अधिकार, और स्पष्ट रूप से उत्पीड़न को पुष्ट करती नीतियों के विरोध के प्रति उदासीन है।
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