समता और समानता: समता प्राकृतिक है और मूलभूत शर्त है देश के विकास की।

 

समता और समानता दो मिलते जुलते से शब्द हैं।


अगर कोई कहता है कि पूर्ण समानता अप्राकृतिक है तो वो बिल्कुल सही कह रहा है।

परंतु 

अगर कोई ये कहता  है कि समता अप्राकृतिक है तो वो बिल्कुल गलत कह रहा है।


इस संदर्भ में सामान्यतः दिए जाने वाले एक नाटकीय उदहारण से बात शुरू करें।


'जब हाथ की पांच उंगली ही बराबर नही तो सब लोग बराबर कैसे हो सकते है' ।


बिल्कुल सही।

पर 

किसी भी छोटी या बड़ी उंगली में चोट लगने पर दर्द बिल्कुल एक सा होता है, और एक मे भी चोट या खराबी पूरे शरीर की छमता को, लगभग एक जैसे तरीके से, प्रभावित कर देती है।

ये दूसरी बात समता को समझाती है और ज्यादा महत्वपूर्ण है।


एक और कोण से देखें, जो आर्थिक पक्ष पर है, तो किसी एक प्रजाति के स्वछन्द सभी जानवर या आदिम इंसान भी समतावाद का प्रदर्शन करते हैं। सामान्यता उन्हें वातावरण से जितना चाहिए वो लेते है और चूंकि  संग्रह जैसा बहुत कुछ नही होता अतः संसाधनों तक पहुंच में वो  बहुत असमान नही होते।


वर्तमान में इंसान ऐसा नही है।


 पहला, वो समूह का प्राणी है और उसका जीवन समूह के जीवन में ही निहित है (कोई इंसान अपनी सामान्य जरूरत की सब चीजें अकेला नही बना सकता)।

दूसरा, बुद्धि, भाषा और उनसे उभरे संचियित अनुभव (संस्कृति) इंसानों द्वारा संसाधनों के दोहन की छमता को गुणात्मक (multiple progression) रूप से बढ़ा देते है।


इन दोनों  ने मिलकर इंसानी जीवन को दो तरह से प्रभावित किया हैं।


पहला , सकारात्मक रूप से, इंसान एक समूह के रूप में अन्य प्राणियों से बहुत बेहतर (सुरक्षित और व्यवस्थित) जीवन  जीने लगा है ।

परंतु, 

ज्यों ज्यों इंसान (समूह के रूप में) के दोहन की छमता बढ़ती जा रही है दूसरा परिवर्तन ये हो रहा है कि इंसानों के बीच संसाधनों के वितरण में बड़ा भारी फर्क आ रहा है (intra-human difference), 1:10000 गुना का फर्क, जो अन्य किसी इंसानी शीलगुणं में, या प्रजातियों के बीच के अंतर  (1: 20 गुना) से भी बहुत ज्यादा है (भारत माता की जय बोलने की प्रासंगिकता लेख देखें )


ये इतना बड़ा फर्क इंसान की समझ को ही अस्थिर कर दे रहा है, किसी के पास  तो महा 2 मानव जैसे संसाधन और कोई जानवरों जैसा या उससे भी बदतर हालात में।


अगर  सामूहिक जीवन संभावना और संसाधनों के वितरण के इतने भारी अन्तःसमूह अंतर को एक साथ देखें तो ये  बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है  की ये इंसानों के बीच का इतना बड़ा अंतर उनकी काबलियत का अंतर नहीं अपितु  समूह के प्रबंधन, आंकलन, और संसाधनों की व्यवस्था की खामियों के कारण है (उदहारण: समान काबलियत वाले परमानेंट और अथिति प्रोफेसर का फर्क) और इस प्रकार ये प्राकृतिक समतावाद के विपरीत एक अप्राकृतिक असमानता को जन्म दे सकता है।

कैसे

जब बहुत बड़ी संख्या में लोग संसाधनों के अकाल में सामान्य इंसान की न्यूनतम परिभाषा की परिधि से बाहर हो जाये तो वह घोर असंतावाद होगा। मतलब न उन के पास खाना पीना और अन्य सुरक्षा हो , न सामान्य इंसानी जीवन की निश्चिताये हो जैसे स्वास्थ और रोजगार।


जिस प्रकार शरीर का कोई भी अंग खराब होने पर पूरे शरीर की कार्य क्षमता को प्रभावित करता है कुछ 2 उसी तरह ये  असमता पूरे समूह के संचित संसाधन जुटा पाने की छमता को बुरी तरह प्रभावित करती है अतः समता पूर्णतः प्राकृतिक हैं और एक मूलभूत शर्त है किसी भी समूह के  संसाधन दोहन की छमता के पूर्णतः विकसित होने में।


ये कोई  विचारधारा टाइप बात नही है अपितु ये मूलभूत आवश्यकता है किसी भी समाज के विकसित होने की।


और सीधे साधे शब्दों में कहें तो, अगर देश या समाज का हर व्यक्ति इस हालत में नही है कि वो अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे सके तो वो देश या समूह विकसित नही हो सकता।

कोई व्यक्ति अपनी छमता के अनुसार अर्थव्यवस्था में तभी योगदान दे सकता है जब कि उसके पास एक स्तर तक संसाधन उपलब्ध हो  जिनसे वो अपने आप को स्वस्थ रख सके, अपनी गुणात्मकता को शिक्षा आदि से बढ़ा सकें और सुरक्षा का  आभास उसे हो सके, तभी वो अर्थव्यवस्था में अपनी छमता के अनुसार भागीदारी कर सकता है।

कोई भी अर्थशास्त्र की पुस्तक इस बात की तस्दीक कर सकती है।

इसी लिए यूरोप के देशों में स्वास्थ शिक्षा और सुरक्षा संबंधी तमाम समतावादी  कदम उठाए गए है जबकि इन देशों की मूल आर्थिक विचारधारा मुनाफे के तर्क पर आधारित है।


अतः असमानताएं प्राकृतिक हो सकती है पर इंसान विकास प्रक्रिया में समूह के कुप्रबंधन से ऐसी असमानताएं पैदा कर देता है जो समतावाद के विरुद्ध है और इसीलिए पूरे समूह की कार्य क्षमता को प्रभावित कर सकती है।

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