सकारात्मक बनाम नकारात्मक: 'सत्य' ही एकमेव निर्धारक
सकारात्मक क्या है, और नकारात्मक क्या है, ये समझना काफी मुश्किल काम है, भले ही हम अधिकतर बातों को सकारात्मक बनाम नकारात्मक में वर्गीकृत करने के आदि है। हम न सिर्फ बातों को अपितु दृष्टिकोण को, और व्यक्तित्वों को भी, नकारात्मक और सकारात्मक के रूप में वर्गीकृत करते रहते है। ये सब मनोविज्ञान विषय के उत्पादों से उपजी आधुनिक जीवन की हमारी समझ है जो बहुत बार गलत होती है।
सामान्यतः, सकारात्मक बात उसे कहते है जो घटित हो रही घटनाओं का समर्थन करती हो (ऐसी घटनाएं जिनसे सीधे सीधे या तुरंत कोई नुकसान दिखाई नही देता हो) और, नकारात्मक उसे कहते है जो घटित हो रही घटनाओं को रोकने का समर्थन करती हो (ऐसी घटनाओं को जिनमें सीधे सीधे या तुरंत कोई नुकसान दिखाई नही देता हो)। इस प्रकार आगे बढ़ना, कुछ करना (किसी प्रकार का एक्शन) सब सकारात्मक बताया जाता है वहीं किसी भी एक्शन के दुष्परिणामों की विवेचना को एक्शन को रोकती नकारात्मक बात करार दिया जाता है। इस बात को भौतिक उदहारण से समझें तो किसी वाहन की रफ्तार (एक्शन) सकारात्मक है और ब्रेक (एक्शन को रोकना) नकारात्मक है। ये भौतिक उदहारण हमे स्पष्ट करता है कि सकारात्मक-नकारात्मक की ये व्याख्या सरलीकरण है। कई बार ब्रेक लगाना अच्छा होता है (जान बचाने की सकारात्मकता) और रफ्तार बढ़ाना खराब (उन्मादी हो जाना)।
इसी तर्ज पर हम ये समझ सकते है कि 'कुछ करना' सदा सकारात्मक नही होता और 'कुछ करने से रोकना' सदा नकारात्मक नही होता। असल मे, 'कुछ करने' और 'कुछ न करने' के आधार इन्हें सकारात्मक और नकारात्मक बनाते है। अर्थात अगर आधार सही हैं तो ब्रेक और रफ्तार दोनों ही सकारात्मक है और बिना सही आधार के दोनों ही नकारात्मक। बातों के संदर्भ में कहें तो, तथ्य आधारित कोई भी तर्कपूर्ण बात (कार्य को रोकने की समर्थक हो या कार्य को करने की) सकारात्मक है, और अर्धसत्य या झूठ पर आधारित कोई भी बात नकारात्मक है।
अक्सर हम शब्दो के चयन से भी नकारात्मकता और सकारात्मकता का आभास लेते है। इसमे भी उपरोक्त भौतिक उदहारण समझने में मददगार है। चीजो को रोकना घर्षण पैदा करता है जबकि रफ्तार बढ़ाना नही। अस्तु, घटना के विरोध की समझ में अक्सर एक बड़ा बौद्धिक प्रयास (पक्ष और विपक्ष की सच्चाइयों की तुलना और आंकलन) शामिल होता है और सीमित संसाधनों (बौद्धिक और समय सीमा के) के चलते कम शब्दों में अपनी बड़ी बात स्पष्ट करने की बंदिश होती है, अतः आलोचना में मधुरता की उम्मीद सामान्यतः बेमानी ही है। वहीं चूंकि समर्थन की बात में कम ऊर्जा लगती है अतः पर्याप्त उपलब्ध बौद्धिक ऊर्जा शब्दों में मधुरता और सरलता को संभव बनाती हैं। शब्दों से सकारात्मकता का आभास आधुनिक एकांकी जीवन की सच्चाई है (बी पॉजिटिव की नकारात्मकता लेख देखें), और मधुरता चाटुकारिता की विद्या (जो अधिकतर घटनाओं के समर्थन में व्यक्त होती है) का मुख्य औजार भी है। यहां ये स्पष्ट करना भी जरूरी है कि हर कड़वी बात सही नही होती (ये भी स्टाइल के रूप में विकसित हो सकती है)। अगर बात के आधार सही नही है तो कड़वाहट और मिठास दोनो ही नकारात्मक है।
जीवनदर्शन में सकारात्मक और नकारात्मक का निर्धारण एक और भी बड़ी रोचक बात है। अक्सर जीवन मे अभाव और मुश्किलें रहती हीं हैं। ऐसे में जीवन के तर्क (कुछ प्रयास करना जीवन का मूल है) के अनुसार कुछ भी करना एक सकारात्मक बात प्रतीत होती है, वहीं प्रयास की आलोचना नकारात्मक प्रतीत होती है। परंतु, इस प्रकार का दृष्टिकोण दिशाविहीन सकारात्मकता देता है, जो व्यक्ति को सकारात्मक तो प्रतीत होता है परंतु समाज के लिए, और कालांतर में व्यक्ति के लिए भी, नुकसानदेह होता है। असल मे ऐसे जीवनदर्शन में दिशा अपनी 2 परिस्थिति से निर्धारित होती है और कई बार विरोधाभासी भी होती है। उदहारण के तौर पर चोर चोरी को लेकर सकारात्मक रहता है वहीं पुलिस चोरी को रोकने को लेकर। उसके अलावा समाज के लिए इसमे कुछ भी सकारात्मक नही होता, क्योंकि व्यक्ति की अपनी स्थिति की बेहतरी ही महत्वपूर्ण होती है, और ये सब समाज की प्रक्रियाओं और नियामकों पर बोझ ही डालती है। इसके अलावा ज्यों ही अधिकतर लोग इस रणनीति को अपना जीवन दर्शन बना लेते है (आधुनिक जीवन में ये छुआछूत की तरह फैलता है) तो वे समर्थक बनते है 'जो भी होता है वो अच्छा ही होता है' वाली समझ के। ये समझ असल मे लोगो के अपने ही हितों पर कुठाराघात में सहायक होती है (शोध शोध देखिये)।
इसके विपरीत इंसानी प्रकृर्ति से उभरी सकारात्मकता एक दिशावान सकारात्मकता होती है जो व्यक्ति और समाज दोनो के लिए सकारात्मक होती है। इंसानी दिमाग एक सदा सक्रिय रहने वाला अंग है, जो मात्र प्रतिक्रियावादी नही है (बस बंदिशों और मौकों पर प्रतिक्रिया करने वाला), अपितु उसकी अपनी एक चाल (या गति) है (निरंतर सक्रिय दिमाग समाज और जीवन पर भी सोचता है और अमूर्त कल्पनाएं भी करता है)। ये चाल ही इसका मूल है और वातावरण के प्रति प्रतिक्रियाएं तो इस चाल से ही निकले छोटे मोटे समायोजन है। इंसानी दिमाग की इस चाल को निर्मल मन की अभिव्यक्ति भी कह देते है और संगीत भी। ये एक दिशावान सकारात्मकता होती है। एक ऐसी सकारात्मकता जो प्रकृति की मूल योजना की अभिव्यक्ति है और इसीलिए व्यक्ति और समाज दोनो के हितों में संगति लिए होती है। इसमे चालक मन (या दिमाग की प्रकृति) होता है न कि वातावरण में उपलब्ध अवसर या बाध्यताएं।
ये मूल बात (मन या दिमाग की चाल) सभी के लिए समान है परंतु हमारे जीवन की वातावरण पर निर्भरता का ज्ञान (जो वातावरण से जुटाए संसाधनों के आधार पर की गई जीवन की व्याख्या के कारण आधुनिक जीवन में बढ़ा है), इसे ढकता और नकारता है। जो लोग मन या दिमाग की इस चाल को पहचान जाते है वो सदा अर्थपूर्ण जीवन जीते है। निर्वाण या मोक्ष की कल्पना इस स्थिति से बहुत दूर नही होती। समाजो के दिशा निर्धारण में भी ऐसे ही सब लोगो का बड़ा योगदान रहता है। वो समाजो को बदलते भी है और सुधारते भी हैं (उदहारण, सब परिस्थितियों से अप्रभावित लेखन करते प्रेमचंद और मुक्तिबोध, या समाज बदलते गांधी आदि)। गौरतलब है कि इंसानी दिमाग की इस मूल प्रकृति से जो भी दिशा निर्धारित होती है वो समाजों के अहित की नही होती, भले ही छोटे समयांतराल में वो स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध प्रतीत होती हो। अतः जीवन दर्शन या व्यक्तित्वों की सच्ची सकारात्मकता मन की अभिव्यक्ति से ही उपजती है और तथ्य आधारित तर्कपूर्ण आंकलन की प्रक्रिया ही इस मन निर्धारित दिशात्मक सकारात्मकता को प्रभावी बनाती है कुछ कुछ उसी प्रकार जैसे तेज दौड़ से ही वायुयान की उड़ान संभव हो पाती है। अतः सत्य या ज्ञान (तथ्य आधारित तर्कपूर्ण आंकलन) ही सकारात्मकता का निर्धारक है।
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सही कहा।। तीव्र गति हो या स्थिरता, विवेक और दीर्घकालिक परिणाम भी महत्त्वपूर्ण हैं।।
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