राष्ट्रभक्ति की सस्ती व्याख्या और लुटेरों की मौज
'राष्ट्रभगत' सुनते ही कौन जहन में आता है।
शायद भगत सिंह, राजगुरु, बिस्मिल, और चंद्रशेखर सरीखे बहुत सारे क्रांतिकारी जिन्होंने देश की खातिर घर बार तो छोड़ा ही, प्राण भी त्याग दिए। अर्थात, सर्वस्त्र न्योंछावर कर दिया देश पर।
आम आदमी अपने जीवन में ऐसे देश प्रेम की (देश की खातिर सब छोड़ देने की) शायद कल्पना भी न कर पाए , पर ये सच है कि वो इन देशभगतो के प्रति कृतज्ञता दिखा कर अपनी राष्ट्रभगति की भावना की अभिव्यक्ति करता है। राष्ट्र के झंडे और गीतों का सम्मान भी इसी का हिस्सा है।
वो (आम आदमी) जो भी करता है पूरे मन से करता है। परन्तु, उसे कभी ये गुमान नही होता कि वो इन महान क्रांतिकारियों सरीखा देशभक्त है।
अब, एक नया व्याख्याकारी विचार पटल पर आता है जो आम आदमी को बताता है कि शहीदों को नमन, राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान, और राष्ट्रीय गीतों का गायन सब मुकम्मल (उच्च कोटि का) देश प्रेम है। ये सब आम आदमी को खुश करता है कि 'चलो हमारे राष्ट्र प्रेम को भी मान्यता मिली'।
वैसे भी, चूंकि आज देश गुलाम नही है ऐसे बड़े वाले देशप्रेम (क्रांतिकारियों सरीखे सर्वस्त्र न्योंछावर कर देने वाले) की न आवश्यकता दिखती है और न इसका कही प्रदर्शन दिखता है (सेना इत्यादि से अलहदा)। इसलिए ये ठीक ही लगता है कि राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान ही राष्ट्रभगति की सबसे सही अभिव्यक्ति है।
पर यहीं से एक बड़ा गड़बड़झाला भी शुरू होता है जो देश की मूल समझ को ही करप्ट कर देने वाला होता है ।
यह दो जुड़ी प्रक्रियाएं पर आधारित है।
पहली प्रक्रिया:
जब प्रतीकों का सम्मान ही मुकम्मल देश प्रेम की मान्यता पा जाता है तो हर वो आदमी जिसे देश से कोई सरोकार नही (जो देश के लिए कुछ खर्च करने को तैयार नही) वो भी समाज मे अपनी मान्यता की स्थापना हेतु इस प्रतीकात्मक देशप्रेम के प्रदर्शन हेतु बड़े पैमाने पर भागीदारी करने को उत्साहित होता है।
इससे आगे,
वो भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते है जो देश को असल मे नुकसान दे रहे होते है (घूसखोर, व्यवस्था को धत्ता बताने वाले, देश के संसाधनों के लुटेरे आदि)।
चूंकि प्रतीकात्मक राष्ट्रभगति एक सस्ता और अच्छा कैमोफलग (छिपाव का जरिया) है, ऐसे लोग अक्सर बड़े स्तर पर और सामान्य से अधिक संजीदगी से राष्ट्रप्रेम प्रदर्शन पर जोर लगाते है। (तुम 10 पैसे का झंडा लगाते हो, में 1000 रुपए का, तुम कहीं भी गली मोहल्ले में झंडा टांग देते हो, मैंने कई हजार में बम्बू बनवाया है झंडा टांगने के लिए आदि आदि)।
दूसरी प्रक्रिया:
आम आदमी पहले की तरह ही यदा कदा पूरे मन से झंडे का सम्मान करता है या राष्ट्रीय गीत गा लेता है पर अब उसे लगता है कि उसकी राष्ट्र भगति काफी कम है, उनकी तुलना में जो नियम से रोज झंडे को सलाम करते है और काफी खर्चा भी करते है देशप्रेम के प्रतीकों पर (भले उनमें से अधिकतर देश के लुटेरे हो)।
इस समझ मे (ज्यादा प्रतीक पूजक, ज्यादा बड़ा देश प्रेमी) आम आदमी की अपनी स्थिति भी खूब समर्थन करती है।
जैसे आम आदमी अक्सर यह विचार करता है कि 'वो खुद भी तो छोटी मोटी चोरियां कर देश को नुकसान पहुंचाता ही रहता है'। अतः वो अपनी सरल-सीधी समझ को इन बड़े लूटेरो पर प्रक्षेपित कर देता है और लूटेरो के देशप्रेम व्यवहार में निहित बड़ी असंगतियों (बड़ी लूट और बड़ा देश प्रेम प्रदर्शन) को नजरअंदाज कर जाता है।
आम आदमी से ये बड़े लुटेरे गुणात्मक रूप से इस तरह भिन्न होते हैं की इनकी अच्छी पैंठ होती है व्यवस्था में (ये सीधे 2 व्यवस्था में फैली अव्यवस्था की देन होते है)। अतः व्यवस्था का साथ इन्हें खूब मिलता है।
चूंकि व्यवस्था का साथ है और आम आदमी के बीच उनकी एक मान्यता है ( प्रतीकात्मक देशप्रेम से स्थापित) इसलिए ये वर्ग (लुटेरे) बड़ी आसानी से समाज और देश का नेतृत्व पकड़ जाता है।
लूट और ठगी को खोलने का प्रयास करने वाले, व्यवस्था की अव्यवस्था पर बात करने वाले, और आम आदमी के आर्थिक हितों पर बात करने वालों के तुरंत चरित्र हरण, और सुधार की बात या ऐसे सब प्रयासों को नकली दिखाना और खारिज कर देना, कुछ लक्षण है समाज के नेतृत्व पर लुटेरों के कब्जे के।
चूंकि लुटेरों की मूल प्रकृति तो उत्पीड़न और लूट की ही होती है अतः लूटेरों का ऐसा नेतृत्व असल मे आम आदमी को बिना शोर शराबे के, पर बड़ी तीव्रता से, बर्बाद करने वाला होता है।
अतः
दो बातें समझ मे आती है।
देश प्रेम की सस्ती व्याख्या आम आदमी के लिए अहितकर है,
और
इस पर ज्यादा जोर अक्सर लूटेरो की ही मौज लाता है।
अतः आम आदमी को प्रतीकों पर ज्यादा जोर नही लगाना चाहिए।
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