भारतीय सामाजिक संगठन का मनोविज्ञान और हाल की लोकतान्त्रिक क्रांति : घृणा का प्रबंधन
'कूड़ा सब के घर में पैदा होता है!
अपने कूड़े से मन में उतनी घिन्न पैदा नहीं होती जितनी पडोसी के कूडे से पैदा होती है। परंतु वो स्थान जहाँ सारे मोहल्ले का कूड़ा पड़ता है सभी मोहल्ले वालों के लिए एक सामूहिक घृणा का केंद्र होता है। जिसके बारे में बात करते हुए पूरे मोहल्ले में एकता सी दिखाई देती है। घृणा से भरी हुई।'
ये बात प्रथमद्रष्टया आपको बहुत महत्वपूर्ण न लगे परंतु ये भारतीय सामाजिक जीवन के मनोविज्ञान का मूल विचार है।
ये बात अजीब या फिर दुराग्रही लग सकती है परंतु इस के तार्किक आधारों को समझने के लिए हमे भारतीय समाज के इतिहास में झांकना पड़ेगा।
इतिहास
(1) भारतीय समाज में जातियों के उद्भव के साथ इसके मूल में विद्यमान एक छुआछूत का भाव बहुत स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हुआ। ये छुआछूत या घृणा न सिर्फ समाज में संस्थागत हुई अपितु लोगों के मनोविज्ञान का भी अभिन्न अंग बनी। हर जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों से घृणा करते हुए भी एक व्यवहार का सम्बन्ध बनाये रखते। एक जजमानी या जीवन यापन का सम्बन्ध।
जातियों में एक स्पष्ट पदानुक्रम तो था ही पर उनमें एक असममित (asymmetrical) वर्गीकरण भी दिखाई देता है जो है नीची जातियों के प्रति पूरे समाज में एक समरूप सी घृणा।
अगर समाज में कहीं सहमति, संगती या एकरूपता दिखाई देती तो वो इन वर्गों के प्रति घृणा के प्रसार में दिखाई देती।
जहाँ यही सामाजिक संगठन हर गांव, शहर, और प्रदेश में एक जैसे से ही थे तो इनसे एक विशाल अखिल भारतीय ढांचा तैयार हुआ जिसमें ये निम्न जातियाँ भारतीय सामाजिक संगठन की नींव की तरह थी। ऊपर के ढांचे में मौजूद सभी लोगों का 'नींव' से एक सा ही रिश्ता था 'समरूपी घृणा' का रिश्ता।
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई से पहले के 2000 सालों के इस सामाजिक संगठन में इन निम्न जातियों के लोगों द्वारा कभी अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ कोई संगठित आवाज उठाने के सन्दर्भ नहीं मिलते। अतःव ये माना जा सकता है कि ये सामाजिक व्यवस्था इंसानी संबंधों के एक स्थिर ढांचे को प्रदर्शित करती है।
(2) ग़दर, या 1857, जो मूलतः राजाओं और सैनिकों का विद्रोह था, की विफलता के बाद भारत में समाज सुधार की बड़ी जरूरत महसूस हुई। कहीं न कहीं निवर्तमान सामाजिक संगठन को अपर्याप्त माना गया। अंग्रेजों से लड़ने के लिए सबकी भागीदारी और समानता के अधिकारों पर आधारित उदारवादी चिंतकों द्वारा व्यवस्था के विचारों को मार्गदर्शक सिद्धान्त माना गया। विभिन्न समाज सुधारक, आंबेडकर और गांधी सब इसकी नुमाइंदगी करते हैं।
मैकडोनाल्ड अवार्ड की विफलता कहीं न कहीं समाज में समानता के विचार की आवश्यकता एवम प्रधानता का द्योतक है।
इन्ही विचारों से जहाँ बुद्धिजीवियों में अपने सामाजिक संगठन की समालोचना का भाव आया, वहीँ पिछड़ी और दलित जातियों के संगठन को मान्यता मिली। परिणामस्वरूप छुआछूत और बहुत सारी दकियानूसी परम्पराएँ सामाजिक जीवन से गायब हुई, वैज्ञानिक सोच, उन्मुक्त विचार एवम जीवन की बात कहीं न कहीं लोगों के जीवन शैली का हिस्सा बनी। ऐसा नहीं है कि सभी लोग बदल गए पर ये प्रभावशाली संभ्रांत तबके के बारे में सही है और इस काल का प्रधान विचार कहा जा सकता है।
वर्तमान
आजादी के बाद सभी को मताधिकार हो जाने पर लोगों की अपनी स्थिति और उनकी समाज की समझ एकाएक महत्वपूर्ण हो गयी और यहीं लोगों का मनोविज्ञान महत्वपूर्ण हो गया।
आजादी के काफी समय बाद तक उदारवादी विचार और आर्थिक मुद्दे लोगों की राजनैतिक समझ का हिस्सा रहे और जातियों या समूहों के गठजोड़ इन्ही के आसपास रहे।
विभिन्न कारणों से उदारवादी दृष्टिकोण में आई कमियाँ, या वांछित परिणामों की अप्राप्ति से, कहीं न कहीं नई समझ की कुलबुलाहट बड़े पैमाने पर लोगों में दिखाई दी। अन्ना आंदोलन की सफलता इसका एक इशारा है जहाँ बिलकुल नए लोग बड़े पैमाने पे देश की जनता की भावनाओं को छू पाये।
एक और धारा जो राजनैतिक तौर पर ज्यादा परिपक्व हो चुकी थी और जो उदारवाद से भिन्न दृष्टिकोण लिए हुए थी बड़े पैमाने पर और लगभग 2 एक लोकतान्त्रिक क्रांति के रूप में सफल हो गयी।
इसकी सफलता के पीछे कई कारण गिनाएं जा सकते है परंतु एक मूल कारण था, भारतीय समाज में जातिय घृणाएँ विद्यमान रहीं, और पूर्णतः समाप्त न हो सकीं।
कैसे ये निर्धारक हैं?⬇
इन जातीय घृणाओं में वो सारा मसाला मौजूद था जो पदानुक्रम आधारित प्राचीन भारतीय समाज को बनाता था कमी सिर्फ एक ऐसे समूह की थी जिसपर सारा समाज अपनी एक समरूप सी घृणा प्रेषित कर सके। चूँकि दलित जातियाँ मजबूत हो चलीं थी और प्रतिरोधी भी, अतः उनपर घृणा का कूड़ा फैंक पाना आसान न था।
मुस्लमान जो अति पिछड़ गया, धर्मान्धता का गुण लिए हुए था और अपनी पहचान को लेकर अत्यधिक चिंतित रहा, बड़ी आसानी से घृणा की उस 'नींव' के रूप में परिवर्तित हो गया या कर दिया गया जिसकी कमीं के चलते प्राचीन सामाजिक संगठन का मनोवैज्ञानिक आधार अधूरा था। इस समरूपी घृणा के लक्ष्य के मिलते ही एक जादूई दैत्य की तरह सब जिन्दा हो गया, पूरा समाज एक समरूपी घृणा सूत्र में बंध एक हो गया। और यही इस लोकतान्त्रिक क्रांति का आधार है।
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