(सर्वशक्तिमान में)आस्था क्यों?

आस्था के साथ 'क्यों' लगते ही इसे एक 'गलत सवाल' बताया जा सकता है। परंतु ये 'क्यों' उस वाशिंग पाउडर की तरह है जो थोड़ा सा ही सब गंदगी धो डालता है और निर्मल अंत देता है। अर्थात शुद्ध आस्था

आस्था को सामान्यतः भगवान में विश्वास से जोड़कर देखा जाता है। इसी से जुड़ा है आस्तिक, जो मानता है कि  'ये संसार भगवान का बनाया हुआ है  अतःव हम इंसानो को भगवान की उपासना करनी चाहिए।' 

बिना किसी क्लासिक आस्थावान के सामान्यतः दिए गए तर्कों में जाये इसकी पड़ताल  करें।

सभी लोग ये मानते है कि भगवान या प्रकृति ही एकमात्र सत्य है और उसके निर्माण पूर्ण है। इसको ऐसे भी कह सकते है कि प्रकृति के अपने सिद्धान्त है जिनमे त्रुटियों की गुंजाईश नहीं है और जो सार्वभौमिक है। तो चाहे उपासना करे या न करें, भगवान या प्रकृति के जीवन पर प्रभाव का इससे कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।  सारे जीव और प्रकृति के क्रिया कलाप ऐसे ही उपासना से अप्रभावित घटित होते है।  कोई वैज्ञानिक, या कोई नास्तिक भी, भगवान या प्रकृति के इस रूप में पूर्ण विश्वास करता है और इस तरीके से वो आस्थावान है, एक निश्चित सिद्धान्त में, भले ही वो प्रकृति या भगवान के सब सिद्धान्तों को न भी जानता हो।

अब आते है क्लासिक आस्थावान की आस्था पर। वो सर्वशक्तिमान के रूप में प्रभावी होती है⬇

एक होता है 'शक्तिमान' और एक होता है 'सर्व शक्तिमान'। सर्व शक्तिमान सारे शक्तिमानो से ज्यादा शक्तिशाली होता है। गली का गुंडा 'शक्तिमान', राजा उससे बड़ा 'शक्तिमान', और भगवान 'सर्व शक्तिमान'। सर्व शक्तिमान भगवान एक तरीके से शक्तिमानो की हमारी समझ का ही विस्तारित रूप है, उन सब शक्तिमानो से विशाल, योग्य, सर्वव्याप्त, और अंतर्यामी।

कुछ पक्ष जो इस पूरी समझ में महत्वपूर्ण हैं वे है कि हमारा एक अस्तित्व है और हम एक कर्ता है (चीजो को नियंत्रित करने वाले, बदलने वाले) । ये दोनों मिल के निर्धारित करते है कि हम मानने लगते हैं कि कोई सर्वशक्तिमान हमारा मालिक है (इसके निर्धारण की व्याख्या आगे दी है), जो हमारे सब क्रिया कलापों पे नजर रखे है। अर्थात,कहीं न कहीं भगवान कुछ-कुछ एक विशिष्ट व्यक्ति सा है, जो हमारे बारे में सब जानता है। इंसान का भगवान से रिश्ता उसी प्रकार का माना जाता है जैसे किसी निर्भर का मालिक से या शक्तिहीनो का शक्तिमानो से। दीनहीन, कृपा प्रार्थी, और याचक के रूप में।

चूंकि इंसान एक कर्ता है, जिसका अपना एक अस्तित्व है, अतः  भगवान के बनाये नियमो, सिद्धान्तों के अनुसार उसके कुछ कार्य सही हो सकते हैं और कुछ गलत।  गलत पर उसे प्रकृति या भगवान के नियमानुसार दंड मिलना चाहिए पर चूंकि  भगवान सर्वशक्तिमान है (हमारी मान्यता) अतः उसकी स्तुति से ये संभव है कि जो निश्चित था भगवान उसे इंसान के पक्ष में बदल दे। 'सब उसके विवेक पर निर्भर है।' (असल मे क्रियाशील होने के कारण निर्धारकों की हमारी समझ अस्थिरता लिए होती है)।

क्लासिक आस्थावान के भगवान से रिश्ते का कुछ अंश ऐसा ही होता है। तो क्या ये क्लासिक आस्था सही नही है और सिद्धान्तों पर आधारित आस्था सही है। 

अगर तार्किक रूप से देखें तो भगवान की सिद्धान्त के रूप में कल्पना ज्यादा सरल और तर्क संगत है। परंतु चूंकि अधिकतर लोग क्लासिक आस्थावान है इसलिए प्रश्न ये उठता है कि ▶

क्यो लोग भगवान को मालिक मानते हैं और उसकी स्तुति करते है? गाय, भेस, और अन्य जानवर सब जीवित है पर वे उपासक नहीं है फिर ऐसा क्या है जो इंसान इतनी बड़ी संख्या में उपासक है?

इंसान अकेला ऐसा प्राणी है जिसे ये अहसास है कि वो कुछ समय बाद समाप्त हो जाएगा। इसी से जुड़ी हुई है जीवन की अनिश्चितता। इंसान को ये अहसास होता है कि जीवन परिवर्तनशील है और वो सारे परिवर्तन उसके नियंत्रण में नही है। चूंकि इंसान के पास भाषा है और याददाश्त भी सो उसे दुनियाभर के परिवर्तनों का ज्ञान है और ये सब ज्ञान अनिश्चितता को कई गुना बढ़ा देता है। 

ये अनिश्चितता इंसान को परेशान न करती अगर इंसान कर्ता न होता। क्रियाशील जीव और जड़जीव या निर्जीव का एक बड़ा फर्क क्रिया का केंद्र ही है। क्रियाशील जीव में क्रिया का केंद्र पदार्थ के अंदर है (चीजों को नियंत्रित करने या बदलने की एक मूल प्रवर्ति लिए) जबकि जड़ मात्र बाहिय प्रभावों से ही नियंत्रित होता है। अतः 'क्रियाशील जीवित ज्ञानी' के  लिए अनिश्चितता एक बड़ी चुनौती है

चूंकि हर अनिश्चितता को हम अपने प्रयासों से निश्चित में नही बदल सकते और कुछ अनिश्चितताएं सदा विद्यमान रहेंगी, ऐसे में भगवान का विचार बड़ी राहत देता है। हम मान लेते है कि कोई शक्ति है जिसका ये सब निश्चय है । ये ज्ञान हम को अनिश्चितता का एक कारण, या व्याख्या, देता है जो मनोवैज्ञानिक रूप से एक निश्चितता (या नियंत्रण) का भान कराती है। 

फिर चूंकि हम उस शक्ति के समकक्ष निर्बल है (हम मानते हैं कि जो हमारे नियंत्रण में नहीं वो सर्वशक्तिमान के नियंत्रण में है) अतः उस शक्ति की स्तुति हमे अपनी स्थिति पर नियंत्रण भी प्रदान करती है। स्तुति कर के हममें एक उम्मीद, आशा (HOPE) पैदा होता है कि भगवान अब शायद हमारे साथ है (स्तुति कर हमने भगवान रूपी शक्ति को भी अपने अनुसार निर्धारित या नियंत्रित कर लिया है) और इस प्रकार  एक और तरीके से हम अपनी स्थिति को नियंत्रित महसूस करते है। जो बड़ी मनोवैज्ञानिक राहत देता है। 

ये कहा जा सकता है कि भगवान या प्रकृति को एक सिद्धांत के रूप में देखना भी मनुष्य को अनिश्चित जीवन की एक व्याख्या प्रदान करता है, परंतु  करीब से अगर देखें तो भगवान की सिद्धान्त के रूप में परिकल्पना (सैद्धान्तिक-भगवान) इंसान को वो गत्यात्मक सहारा नहीं देती जो शक्तिमान के रूप में मान्यता (सर्वशक्तिमान-भगवान) देती है। और इसी लिए भगवान को शक्तिमान के रूप में देखना ज्यादा लोकप्रिय है।

सर्वशक्तिमान भगवान और इंसान का गत्यात्मक संबंध कुछ इस प्रकार है ▶

1. भगवान चोर की चोरी में सहायता करता है, गरीब की गरीबी से लड़ने में, और अमीर की अमीरी बनाये रखने में। अतः सर्वशक्तिमान भगवान हर संभव स्थिति में इंसान का सहायक है जो भगवान की सिद्धान्त रूपी परिकल्पना में संभव नही, क्योंकि सिद्धान्त  तो विरोधाभासी संभावनाओं की व्याख्या नही कर सकता है।

2. चूंकि सर्वशक्तिमान भगवान अंतर्यामी है (हमारी भावनाओं का ही प्रक्षेपण है), अतः प्रत्येक व्यक्ति शक्तिमान-भगवान से संवाद कर सकता है और एक ऐसे भरोसेमंद साथ की उम्मीद कर सकता है जो सैद्धान्तिक-भगवान की परिकल्पना में संभव नही। ये पक्के साथ कि उम्मीद व्यक्ति के प्रयास करने को बड़ी हिम्मत देती है।

3. इंसान समूह का प्राणी है और  शक्तिमान-भगवान की कल्पना सामूहिक प्रयासों में भी बड़ी सहायक है ये समूह में एकता और विश्वास का संचार करती है, जो सैद्धान्तिक-भगवान की परिकल्पना में संभव नही।

ये सब गत्यात्मक समर्थन निश्चित ही सामान्य व्यक्ति के जीवन का बड़ा सहारा है। और शहीद भगतसिंह जैसे कुछ विशिष्ट ज्ञानी और बहादुर ही शक्तिमान-भगवान रूपी सहारे के बिना ही जीवन जीने का दम रख सकते हैं।

निश्चित ही शक्तिमान-भगवान की मान्यता के बहुत अच्छे फल हैं इंसान के जीवन मे, परंतु रोग भी बहुत आते हैं इसमें, वहीं सैद्धान्तिक भगवान की मान्यता इन रोगों से मुक्त रहती है । 

 1. सामान्यतः व्यक्ति पहले खूब प्रयास करता है और जब सफल नही हो पता तो भगवान की शरण में जाता है। परंतु कुछ लोग कर्म करते नही और स्तुति पर आधारित उम्मीद के सहारे ही रहने लगते है। शायद ऐसे ही रोगियों के लिए कर्म की प्रधानता को इंगित करता 'गीता का ज्ञान' दिया गया है।

परंतु ज्यादातर रोग सामाजिक हैं।

2. शक्तिमान-भगवान को एक अस्तित्व के रूप में स्थापित कर देने पर दो भिन्न समाजो के लोगों की अंतःक्रिया में ये विचार भी आता है  कि मेरा सर्वशक्तिमान अलग और तुम्हारा सर्वशक्तिमान अलग। और जब ये अलग-2,  तो तुम्हारा शक्तिमान मेरे शक्तिमान से ताकतवर नहीं, और सब लट्ठम-लट्ठा रोज दिखाई देता है।

3.  'मैं चूँकि उपासक हूँ अतः सर्वशक्तिमान-भगवान कि मुझ पर कृपा तुम से ज्यादा होगी अतःव मैं तुम से बेहतर हूँ' आदि आदि। और एक  ही समाज के  भीतर भी सारी ऊंच-नीच का ज्ञान पैदा हो जाता है।

चूंकि भगवान की सारी  मान्यता इंसान की प्रकृति से जुड़ी हुई है (निरपेक्ष रूप से  भगवान के होने को न नकारा जा सकता है और न माना जा सकता है), अतः आस्था पर प्रचलित विचारों के संदर्भ में आस्था की इस नई समझ से कुछ संदेश उभरते है।▶

1. क्रांतिकारी विचारकों द्वारा शक्तिमान-भगवान की मान्यता को जोरदार तरीके से खारिज कर देने से क्रांतिकारी उद्देश्यों को प्राप्त करना उनके लिए और मुश्किल होगा क्योंकि शक्तिमान भगवान की आस्था जैसा उम्दा-गत्यात्मक सहारा लोगों को देती है उसके चलते लोगो को इसे  'ये' या 'वो' (this or that) (क्रांतिकारी को चुनूँ या भगवान को) के चयन के मानसिक द्वंद से गुजरना पड़ेगा।

2. सर्वशक्तिमान-भगवान की मान्यता बिजली की तरह है। अगर जिम्मेदारी से प्रयोग हो तो बहुत फायदे और अगर समाज मे वैमनस्य फैलाने के लिए प्रयोग कर दिया जाए तो सब तहस नहस। 

3. समझ लेना चाहिए कि जो व्यक्ति या समूह भगवान को लेकर समाज मे ज्यादा ही जज्बाती हो कर दिखा रहा है वो असल मे समाज मे अपनी स्थिति को लेकर चिंतित है और उसे सुधारना चाह रहा है।

🙏🏼

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