मेरिट, आरक्षण, जीन, वंचन, और न्याय

मेरिट सक्षमता का सबसे सही आंकलन है। 

सबको समान अवसर और जो भी परीक्षा में खरा उतरे उसे देश सेवा का मौका और उससे जुड़े लाभ दिए जाने चाहिए।

हालांकि, भारत मे अधिकतर एक खास समूह (शहरी, मध्यम वर्ग और अगड़ी जातियां, जो ओवरलैप श्रेणी है) के लोग ही ऐसी ओपन मेरिट परीक्षाओं में खरा उतरते है। परंतु 'चूंकि ओपन मेरिट से देश को बेहतरीन लोग मिल रहे है इसलिये इसमे कुछ भी गलत नही लगता कि मेरिट में कौन से सामाजिक-आर्थिक वर्ग से लोग आते है', और इसीलिए शायद आम लोग और खास कर ये तबके आरक्षण के विरोधी है।


इस बात में दो मुख्य प्रश्न छिपे है 

एक है 'बेहतरीन लोग' क्या सच मे बेहतरीन है?

और 

दूसरा, क्या जो तबके स्थान नही पा पाते इन ओपन मेरिट में वो कबलियतों में कमतर इंसान है?


इन प्रश्नों का महत्व ये है कि ये सामान्यता बहुत पढ़े लिखो के द्वारा छिपी नकारात्मता के साथ उठाए जाते है और न्याय की प्रक्रिया में भी काम करते दिखते है।


दूसरा प्रश्न पहले ले, और अगर उसका उत्तर हाँ है (जैसा छिपे रूप से सामान्यतः माना जाता है) तो फिर तो  इन तबको को स्पष्ट रूप से दोयम करार दे दिया जाना चाहिए, और ऐसे में  आरक्षण जैसी व्यवस्था की कोई आवश्यकता नही है चूंकि मूल रूप से कम सक्षम व्यक्ति तो गर्त में ही ले जाएगा देश को (जैसा आरक्षण पाए तबकों के बारे में आम धारणा है)।


पर ये स्थापित कैसे हो कि ये बहुसंख्यक भारतीय कमतर इंसान है?


इसके लिए दो चीजों का स्थापित होना आवश्यक है।

पहला, साक्षमताओं की माप का ऐसा पैमाना जिस की वैधता स्थापित हो।

और 

दूसरा इन तबकों में किसी ऐसी मूलभूत कमी की  पहचान हो जो इन तबकों की कमतरता के ऐसे आधार स्थापित करे जो दुरुस्त न हो सके।


पहले बिन्दु पर ये कहा जा सकता है कि लोगों की विशेष योग्यताएं कुछ हद तक भरोसेमंद तरीके से नापी जा सकती है और विशेष योग्यताओं में  लोगो मे फर्क पाए गए है, परंतु सामान्यतः बेहतर और खराब का कोई पैमाना अभी उपलब्ध नहीं है।

 बुद्धिलब्धि की पैमाइश ऐसी कोशिश जरूर करता है पर उसकी अपनी सीमाएं है, और गहन शोध भी विभिन्न समूहों में किसी मूलभूत भेद का समर्थन नही करते हैं(शोध देखे)।

अंग्रेजी मानसिकता से पीड़ित हम भारतीय, सिविल सेवा परीक्षा को अक्सर ऐसे सामान्यतः बेहतर के पैमाने के रूप में पेश करते है पर वो भी ऐसा पैमाना बिल्कुल नही है ( देश की अव्यवस्था, तुगलकी फरमानों, और  भ्रष्टाचार पर जिम्मेदारी की बात आने पर ये पैमाना अक्सर धराशायी हो जाता है )।

 दूसरे बिंदु पर ये आवश्यक है कि कोई अनुवांशिक आधार मिले जो सिद्ध करे सामाजिक समूहों में कम या ज्यादा सक्षमता को। परंतु, बुद्धिलब्धि से जुड़े शोध जहाँ व्यक्ति की बौद्धिकता का अधिकतर अनुवांशिक आधार होने का समर्थन करते हैं,  न तो व्यक्तियों की बौद्धिकता के स्पष्ट जीन मिले हैं और न ही समूहों का भेद करते कोई जीन मिला है, जबकि ऐसे अध्ययन लाखों लोगों के पूरे जीनोम को स्कैन कर किये गए है।

ऐसे में जीन का फर्क स्थापित नही हो पाता और विशिष्ट वातावरणीय वंचन (एपीजनेटिक प्रभावों सहित) ही महत्वपूर्ण कारक प्रतीत होते है।

वातावरणीय वंचन कुछ कुछ ऐसे काम करता है जैसे भारत और अमरीका के ओलिंपिक में स्वर्णपदक का भेद।

अनुवांशिक रूप से भारतीय कहीं कमतर नही हैं अमरीकियों से, परंतु मूलभूत सुविधाओं की कमी इतना बड़ा असर डालती है कि सवा सौ करोड़ में से एक भी बेहतरीन नही निकल पाता, जबकि  बड़ी जनसंख्या के चलते विशेष योग्यता का समर्थन करते जीन की उपलब्धता की संभावना बहुत अधिक है ( कुछ 2 यही तर्क शोध और अन्य छेत्रो के बारे में भी सही है: मतलब भारत मे ज्यादा संख्या में बेहतरीन खिलाड़ी और जीनियस पैदा होने की संभावना है)।


तो इस प्रकार भारत के बहुसंख्यक तबके ओपन मेरिट में स्थान इसलिए नही पा पा रहे है, चूंकि वो बड़े पैमाने पे वंचन के शिकार है और इसी प्रकार 'बेहतरीन लोग' बेहतरीन इसी लिए है चूंकि बहुसंख्यक में से कुछ लोग जो उन से भी बेहतर होते, वंचन के शिकार  हो गए। अब ऐसे में ओपन मेरिट बेहतरीन प्रतिभाओं की छांट का बस भ्रम भर है। इसका ये मतलब कतई नही की जो लोग ओपन मेरिट के माध्यम से आये वो बेहतर नहीं है, निश्चित ही बेहतर  है, पर बेहतरीन वाली बात सही नही है।

यहीं से आधार निकलता है इस बहुसंख्यक आबादी को आरक्षण जैसा मौका देने का, जो वंचितों में से बेहतरीन की छांट का समर्थन करता है और बेहतर ट्रेनिंग और मौके के साथ देश  को बेहतर प्रतिभा उपलब्ध कराता है (भारतीय रेल पर इस बाबत शोध देखें)।


अब प्रश्न आता है कि जब बुनियादी फर्क नही है और ओपन मेरिट एक तरह से वंचन पर आधारित फर्क की पैमाईश है तो इतना जोर क्यों है पूरे समाज की सोच पर ओपन मेरिट का

सीधा सा उत्तर है कि ये कहीं न कही पोषण करता है समृद्ध तबकों के समाज पर प्रभुत्व को।

 ये बात गलत होती अगर ये समृद्ध  वर्ग कहीं समर्थन करता कि देश हित मे आम नागरिक को वंचनाओं से मुक्त कराने का एक बड़ा प्रयास होना चाहिए (सबको अच्छी शिक्षा और सबको अच्छा स्वास्थ्य) पर ऐसा कुछ प्रबुद्ध लोगों को छोड़ कर  इस वर्ग की मुख्य थीम नही है, वो तो रटे रटाए 'मेरिट के समर्थक है बस और कुछ नही'।

भारत के संविधान ने बड़ी मजबूती से वंचनाओं के दुष्परिणामों को समझते हुए वंचनाओं से आम आदमी की मुक्ति के प्रयासों का समर्थन किया है (आर्टिकल 14-16, 21, और नीति निर्धारक सिद्धान्तों को गढ़ कर), गांधी भी पूरी गंभीरता से अंतिम आदमी के कष्टों से मुक्ति को मूल बताते है देश के विकास का, पर हाल के दिनों में  न्यायालयों के स्तर पर भी ये समझ उथली कर दी गयी है।

इसकी एक बानगी है विश्वजीत बनाम सरकार का केस, जिसमे विभिन्न न्यायालयों ने इस बात का समर्थन किया है कि उच्च शिक्षक संस्थाओं में आरक्षण विभागवार और संस्थानवार होना चाहिए न कि सभी नौकरियों को इकठ्ठा कर, और एक रोस्टर का पालन होना चाहिए जो गैर रिजर्व्ड से शुरू हो। 

न्यायालय का आदेश अपनी कसौटियों पर खरा भले ही हो पर इसका एक दूरगामी प्रभाव ये है कि अगले 20-30 वर्षों तक वंचित वर्गों (जिसको जातीय आधार पर वर्गित किया गया है और इस लेख से अलग डिबेट का एक बिंदु है) को प्रभावी रूप से ये मौके नही मिल पाएंगे (इंटरव्यू आधारित चुनावो में ये और स्पष्टता से घटित होता प्रतीत होता है, जहां सामान्य कैटेगरी में मात्र उच्च जातियों वर्गों का प्रतिनिधित्व अधिकतर होता है)।

 यहाँ ये महत्वपूर्ण है कि सरकार इसके रिविशन का नाटक करती है और खारिज याचिका के बाद इसे रोकने को अध्यादेश भी लाती है परंतु इस बात का प्रस्ताव न्यायालयों के सम्मुख नही रखती की रोस्टर की शुरुआत वंचित वर्ग से हो। ये पूर्णतः न्यायसंगत है क्योंकि उच्च शिक्षा की नौकरियों में वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व आज भी (इतने सालों के रिज़र्वेशन के बाद भी) बहुत कम है (इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल देखे; NFS की कहानी बड़ी प्रचलित है)।

 अगर सरकार उपरोक्त तथ्यों के साथ ये बात न्यायालयों के सम्मुख रखती तो यही निर्णय होता की रोस्टर की शुरुआत वंचित वर्गों से होनी चाहिए (यहां ये इंगित करना भी आवश्यक है कि इन तथाकथित वंचित वर्गों-जातियों में भी कुछ खास पॉकेट बन गए है जो सर्वाधिक लाभान्वित होते है और सही वंचितों के मौकों को खा जाते है)। 

इसी का एक दूसरा उदाहरण भी महत्वपूर्ण है: वो है अगड़ी जातियों में गरीब वर्गों का आरक्षण। 

जहां ये आरक्षण इस बात को मान्यता देता है कि आर्थिक वंचनाये, सामाजिक वंचनाओं की तर्ज पर ही लोगों की क्षमताओं को प्रदर्शित होने नही देती (ओपन मेरिट में उन्हें आने नही देती) और अनुवांशिक क्षमताएं इसका मुख्य कारण नही है, वही 8 लाख की इनकम का पैमाना एक क्रूर मजाक है असल वंचितों के साथ (जबकि हाल ही तक 3 लाख से ऊपर वाले टैक्स पेयर थे)।


ये सब  बातें इसलिए महत्वपूर्ण है कि आज हर स्तर पर वंचितों के विरोध में  एक विचार खड़ा किया जा रहा है जिसके आधार झूठे और खोखले है और आने वाले समय मे ये विचार वंचनाओं को बढ़ाने के और काम आने वाला है, जो बिल्कुल भी देश हित मे नही है।

ये भी महत्वपूर्ण है कि वंचितों की वंचनाओं में इन (वंचित) वर्गों का निजी  (इनके व्यक्तित्वों का, इनकी समझ का) योगदान बहुत कम है (मतलब इन्हें अपने कर्मो और अपने अनुवांशिक आधारों पर दोषी नही ठहराया जा सकता) और सीधे 2 व्यवस्थाओं की नाकामियों और कमजोरियों का योगदान सर्वाधिक है।

इसीलिए  आमजन को एक तो समाज में  वंचनाओं से मुक्ति का समर्थक  होना होगा (अर्थात, सबको अच्छी शिक्षा और सबको अच्छा स्वास्थ्य का समर्थक) और दूसरा व्यवस्थापक जमात को शोषण  समर्थक विचारों के  पोषक होने से रोकना होगा, ताकि वे देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से बच निकल न सकें, और इसके विकास में सहायक हों।

इसी प्रकार

वंचनाओं से ग्रसित ये गरीब देश साक्षमताओं का देश बन पायेगा।

🙏🏻

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

निजी वाहनों पे 'सरकार': अव्यवस्था के साइन बोर्ड

सकारात्मक बनाम नकारात्मक: 'सत्य' ही एकमेव निर्धारक

अवैध निर्माण: राजकाज का बेहतरीन औजार