पढ़े -लिखे वर्ग की 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' आइडियोलॉजी: सामाजिक कैंसर का इशारा
पढ़े लिखो के बीच बैठिए तो अक्सर सुनने को मिलेगा की जीवन 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' (Survival of fittest) के सिद्धांत पर आधारित है। वहीं यह भी स्पष्ट होगा कि 'वही व्यक्ति जिंदा रहेगा जो फिट है बाकी सब मर जाएंगे।'
परंतु ये डार्विन की थ्योरी का गलत प्रयोग या व्याख्या है।
पहला, डार्विन ने 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' की बात किसी एक जीव के संदर्भ में नही कही अपितु एक प्रजाति के संदर्भ में कही है।अर्थात ये प्रजाति की फिटनेस पर तो बात करता है पर प्रजाति के किसी एक, दो, या कुछ जीवो के बारे में कुछ नही बताता।
दूसरा, ये जंगल मे प्रजातियों के सर्वाइवल के बारे में है, जहां खुद को नियमित या नियंत्रित करने के व्यवहार की कोई मान्यता नही है अपितु हर हाल में और किसी भी प्रकार जीवित रहने की स्थिति के बारे में है।
इंसानी जीवन सामान्यतः इससे बिल्कुल भिन्न है।
किसी एक इंसान का सर्वाइवल अन्य इंसानों के सहयोग पर बहुत अधिक निर्भर है।
या संक्षिप्त रूप से कहें तो इंसान का सर्वाइवल, व्यवस्था, या अन्य इंसानों से संबंधों के तानेबाने, पर बहुत अधिक निर्भर है। (जो एक व्यक्ति के सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट से मेल नही खाता है)
वहीं, व्यक्ति का नियंत्रित और नियमित व्यवहार (कानून और व्यवस्था के अनुसार) इंसानी जीवन की महत्वपूर्ण शर्त है, जो जंगल मे प्रचलित जीवन- हर हाल में किसी भी प्रकार जीवन, से फर्क व्यवहार है।
इंसानी जीवन शरीर की कार्यप्रणाली के समरूपी है। जैसे शरीर मे अलग 2 सेल है उसी प्रकार समाज मे अलग 2 इंसान है।
वहीं, जैसे शरीर मे सेल्स के बढ़ने,समाप्त होने, और उनके क्रिया कलापों के स्पष्ट नियम है (जिनका सेल उल्लंघन नही कर सकते) उसी प्रकार इंसानी जीवन भी सामान्यतः समाज (या देश) के घोषित नियमो के अनुरूप कार्य करता है।
किसी शरीर के जीवित रहने की मुख्यतः दो शर्ते है-
1. सभी सेल्स की मूलभूत आवश्यकताएं ( खाना, ऑक्सिजन आदि) पूर्ण हो, और
2. सेल नियमनुसार व्यवहार करें।
उसी प्रकार समाज के जीवित रहने की शर्तें है कि व्यक्तियों की मूलभूत सुविधाएं पूर्ण हो और व्यक्ति समाज के नियमानुसार व्यवहार करें।
कैंसर एक रोग है जिसमे शरीर का नियमित व्यवहार गड़बड़ा जाता है। वो नियम जो सेल्स के बढ़ने और न बढ़ने को नियंत्रित करते है (सामान्यतः, जैसे चोट लगने पर सेल बढ़ते है पर चोट ठीक हो जाने पर रुक जाते है) ध्वस्त हो जाते है।
अब ऐसे में सेल्स या सेल्स के समूह एक दूसरे के साथ 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' की जोरआजमाइश करते है (अनियंत्रण रूप के बढ़ते है और उपलब्ध संसाधनों का बड़ा हिस्सा अपने हक में कर लेने का प्रयास शुरू कर देते है), और इसप्रकार एक दूसरे को समाप्त कर पूरे शरीर की ही मृत्यु कर देते है ।
कुछ कुछ इसी प्रकार समाज के अंदर किसी व्यक्ति या समूह का 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' का प्रयास या व्यवहार, कैंसर जैसा प्रभाव पैदा करता है और समाज (या देश) को ध्वस्त कर देता है।
चूंकि पढ़ा लिखा वर्ग ही किसी समाज या देश की नियमबद्धता के व्यवहार का अभिभावक या रक्षक होता है पढ़े-लिखो में 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' की आइडियोलॉजी का विकसित होना स्पष्ट तौर पे गंभीर सामाजिक कैंसर का इशारा है (बाड़ ही खेत को खाने की समर्थक हो जाये तो खेत पक्के तौर पर नही बचेगा)।
समाज की स्थितियां और व्यक्तियों के विचार सदा ही एक गहन अंतःक्रिया के परिणाम होते है।
ऐसे में, जहां ये सही है कि 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' की पढेलिखो की आइडियोलॉजी समाज की लचर होती व्यवस्था का प्रतिबिंब है (या उसके कारण है) वही यह भी सही है कि एक बार व्यक्ति में ऐसे इडोलोगिकल विकास के बाद वो इसे लंबे समय तक ढो सकता है और इस सामाजिक कैंसर का महत्वपूर्ण एजेंट हो सकता है।
चूंकि, अव्यवस्थित होते समाज मे पहले से कोई नही बता सकता कि कौन सा व्यवहार (घोषित व्यवस्था बनाम अघोषित चलन; उदहारण, नियम पालन बनाम रिश्वत दे कर काम निकाल लेना) जीवन को बेहतर बनाएगा या आगे बढ़ाएगा, तो ऐसे में लोगों में शक्ति की पूजा का व्यवहार प्राकृतिक रूप से अक्सर पैदा हो जाता है। वो समाज मे शक्तिशाली की पहचान करने लगते है, और उसकी इच्छाओं के अनुसार कार्य करने लगते है। ये जीवित रहने का सबसे कम खर्चीला तरीका होता है।
पर इसका दुष्परिणाम ये है कि इससे दूरदृष्टि और व्यवस्था की समझ का लोप हो जाता है और व्यक्ति मौलिक विचार और अधिकारों-कर्तव्यों की समझ के स्थान पर 'कृपा' आधारित व्यवहार को बुद्धिमानी मानने लगता है। कहने की बात नही की पढ़े लिखे, जो व्यवस्था के मूल पालक होते है,उनमें ये व्यवहार देश और समाज के लिए गंभीर दुष्परिणाम लिए होता है। (भारत मे पढ़े लिखों में ये कैसे प्रभावशाली हुआ, इस पर अलग से चर्चा हो सकती है)।
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि इंसानी समाज आदिकाल में तो और ज्यादा अव्यवस्थित थे (लोग आपस मे लड़ते रहे), और वो समाज जिंदा रहे और आधुनिक समाज के रूप में विकसित भी हुए तो आज कैसे 'सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट' समाज को खत्म कर देगा?
असल मे ये उद्विकास की एक गलत समझ पर आधारित प्रश्न है।
उद्विकास या एवोल्यूशन को अगर देखे तो वो अकेले सेल वाले प्राणी से बहुकोशकीय या मल्टी- सेलुलर जीव की तरफ जाता है (सरल से जटिल संरचना की तरफ) पर शर्त वही ऊपर वाली दोनों होती है सेल्स का नियमित व्यवहार और सभी सेल की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति (बड़े शरीर वाले प्राणी, जैसे डाइनासोर, मर गए क्योंकि वो इस दूसरी शर्त को पूरा न कर पाए)।
बिल्कुल इसी तरीके से समाज भी सरल से जटिल की तरफ विकसित होता है परंतु वही जो इन संदर्भित मूलभूत शर्तो (व्यक्तियों की मूलभूत सुविधाओं की पूर्ति और नियमित व्यवहार) का पालन कर पाता है। अन्यथा जटिलता की ओर बढ़ते बहुत सारे समाज समाप्त हो जाते है।
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