प्रशासनिक दम्भ

सिविल सेवाओं के लोग अक्सर ये बात कहते मिलते है कि प्रशासन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, प्रशासन सब गतिविधियों का आधार है, और प्रशासन अकेला अपरिहार्य संरचना है। ये सब बातें जो वे कहते है वो बिल्कुल सत्य है। सभ्य समाज की कोई भी गतिविधि बिना किसी प्रशासनिक व्यवस्था के संभव नही, और प्रशासन किसी भी समाज की न्यूनतम संरचना है।

परंतु ये 'सत्य' एक छोटा सच है जिसपर जोर एक बडे सच को नजरअंदाज करने जैसा है। बड़ा सच यह है कि प्रशासन का औचित्य एक बड़ी व्यवस्था में निहित है और बिना उस समग्र के प्रशासन का कुल महत्व बहुत ही कम या छोटा होता है। इस बात को भौतिक रूप में समझे तो हड्डियों का ढांचा कहीं दिखाई नही देता परंतु अन्य प्रणालियों की संभावनाओं को बनाता है, और उनके स्वस्थ क्रियाकलाप का समर्थन करता है। अतः, न दिखते हुए भी स्वस्थ शरीर मे प्रमुखता से महसूस होता है। वहीं, दिखता हुआ हड्डियों का ढांचा ये बताता है कि उस पर आधारित अन्य प्रणालियां कमजोर हो चली है और तभी वो देखने मे डरावना प्रतीत होता है।

ऐतिहासिक दृष्टि से देखे तो प्रशासन का विकास राजतंत्र के साथ जुड़ा है। राजाओं की इच्छाओं के कार्यान्वयन, विद्रोह की संभावनाओं को न्यूनतम रखने हेतु व्यवस्था का निर्धारण, और  राजा और उसकी सेना के पोषण हेतु आर्थिक क्रियाकलापों का नियंत्रण सामान्यतः प्रशासन के मुख्य बिंदु होते थे। राजा द्वारा प्रत्यायोजित (दी गयी) शक्तियां प्रशासन को मान्यता प्रदान करती थीं और इन शक्तियों का प्रयोग समाज मे प्रशासक (व्यक्ति) की भूमिका को आकर्षक बनाता था। यहाँ ये भी प्रासंगिक है कि राजा के प्रति पूर्ण समर्पण ही किसी प्रशासक में शक्ति के प्रत्यायोजन का प्रमुख निर्धारक था।

लोकतंत्र के विकास के साथ (पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रांति, और फ्रांस की क्रांति के बाद) देशों में शैक्षणिक, आर्थिक, न्यायिक और राजनैतिक गतिविधियां में तीव्र गुणात्मक विकास हुआ और ये सब प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त रूप से निर्धारित होता हुआ लगा। इस बहुआयामी विकास ने प्रशासनिक ढांचे के रूपांतरण को निर्धारित किया और प्रशासन नियामक, समर्थक और सहायक की भूमिका लेता नजर आया। प्रशासकों के चयन में योग्यता मूल निर्धारक बनी (पूर्व में राजा की इच्छा से निर्धारित), और प्रशासनिक पदधारियों में शक्तियों का संचार भी नियमावली से होने लगा। इस प्रशासनिक रूपांतरण ने जरूर शैक्षणिक, आर्थिक, न्यायिक और राजनैतिक विकास का समर्थन किया। परंतु प्रशासन की मूल संरचना एवम प्रवर्ति वही पुरानी बनी रही। आज भी पदानुक्रम और उच्चपदस्थ द्वारा निगरानी (एवम आंकलन) की व्यवस्था अपने पूर्ववर्ती मौलिक रूप में ही मौजूद है। भले ही चयन कौशल परीक्षाओं से निर्धारित हो, प्रशासनिक तैनाती का मुख्य आधार आज भी उच्चपदस्थ के विश्वास पर ही आधारित है। और सबसे महत्वपूर्ण तो प्रशासन की कार्यप्रणाली है। इसमे उच्चपदस्त व्यक्ति सभी गतिविधियों का निर्धारक होता है (और सर्वाधिक सक्षम भी माना जाता है) और पूरा प्रशासन एक मशीन की तरह उसका निर्धारित किया हुआ कार्य करता है। प्रशासन की संरचना असल मे सेना जैसी आपातकालीन संस्था की संरचना का ही संशोधित रूप है। इसमे न सिर्फ ऊपर से निर्धारित कार्य को त्वरित करने की क्षमता है अपितु कार्यवाही के (अन्य संस्थाओं पर) प्रभावों को ध्यान में रखकर सीमाओं का निर्धारण भी किया जाता हैं। परंतु, दोनो ही चीजों (कार्यवाही और सीमाओं) का निर्धारण ऊपर (उच्चपदस्त द्वारा) से होता है।  

सामान्यतः लोग नवनियुक्त या छोटे प्रशासको के व्यवहार से उपरोक्त वर्णित दम्भ की अभिव्यक्ति अनुभव करते है। परंतु चूंकि रणनीति और सीमाओं का निर्धारक उच्च पदधारी ही करता है अतः प्रशासनिक दम्भ का उद्गम भी उच्च पदधारी प्रशासक से ही होता है।  नवनियुक्त या कनिष्ठ प्रशासक तो अपने वरिष्ठ के  रूख की अभिव्यक्ति मात्र ही कर रहा होता है (निजी वाहनों पे सरकार लेख देखे)।

किसी भी प्रशासक को रणनीति और सीमाओं के सही निर्धारक के लिए व्यवस्था और उससे जुड़ती देश-समाज की  संस्थाओं आदि का बेहतर ज्ञान होना आवश्यक  है। अक्सर ऐसा ज्ञान दो तरह से प्राप्त होता है एक निजी अनुभव से और दूसरा शोध या व्यवस्थित अध्ययनों द्वारा। आधुनिक काल का प्रशासक अक्सर दोनो तरह के ज्ञान का मिश्रण कर एक समग्र दृष्टि विकसित करता है और उसके अनुसार रणनीति और सीमाओं का निर्धारण करता है। निजी अनुभव पर आधारित निर्णय प्रशासनिक जीवन का अभिन्न अंग है  (रोजमर्रा की नित नई समस्याओं एवम चुनोतियो के त्वरित निवारण की अवश्यकता के कारण) और डिफ़ॉल्ट सेटिंग है (राजतंत्र के प्रशासन का मूल रूप है)। परंतु आधुनिक प्रशासनिक आवश्यकताएं व्यवस्थित अध्ययनों के महत्व को भी खूब स्थापित करती है।  पश्चिम के देशों को अगर हम देखें तो वहाँ व्यवस्थित अध्ययनों से निर्धारित नीति पर जोर है। व्यवस्थित अध्ययन (मात्रात्मक विश्लेषण पर आधारित) समाज और संस्थाओं का व्यवस्थित चित्रण (या दृष्टिकोण) प्रस्तुत करते हुए उनकी एक बेहतर समझ विकसित करने में मददगार होता है। ऐसी समझ मात्र व्यक्तिगत अनुभवों से निकली समाज और संस्थाओं की समझ से बेहतर तो होती ही है वो प्रशासकों के बीच एक सामान्य चेतना के विकास का समर्थन भी करती है जो संकुचित दृष्टिकोण को विकसित नही होने देती। चूंकि पश्चिम के देशों में पढ़ाई लिखाई एवम व्यवस्थित समझ का दायरा और पैमाना बड़ा है अतः वहां प्रशासक भी निजी बनाम व्यवस्थित समझ के पैमाने पर व्यवस्थित की तरफ ज्यादा रहता है और वहां प्रशासनिक दम्भ जैसी समझ इसीलिए कम है।

विकासशील देशों में शैक्षणिक, राजनेतिक, न्यायायिक, और आर्थिक विकास सब कम-2 से है, अतः पश्चिम जैसी (शैक्षणिक, राजनेतिक, न्यायिक, और आर्थिक आवश्यकताओं से  निर्धारित) प्रशासनिक सीमाएं अप्राकृतिक सी है।  यहां प्रशासनिक सीमाओं का निर्धारण अधिकतर एक राष्ट्रीय नीति से होता है (देश के विकास हेतु विभिन्न संस्थाओं के विकास की नीति)। चूंकि नीति का क्रियान्वयन प्रशासन ही मुख्य रूप से करता है अतः यहां  प्रशासन को पालक और पोषक की अतिरिक्त भूमिका भी मिलती है। 

नए स्वतंत्र हुए देशों में (आर्थिक, शेक्षणिक, न्यायिक, एवम राजनेतिक क्षेत्रों के) संस्थागत विकास की राष्ट्रीय नीतियां काफी प्रभावशाली थी (देश निर्माण की चाहत में)। परंतु कालांतर में इनके लिए प्रतिबद्धताएं घटती चली गयी, और आर्थिक से लेकर राजनेतिक विकास (पश्चिम  की तुलना में) बहुत प्रभावशाली तत्व नही बन पाया, और सब कुछ आधा-अधूरा सा ही रह गया। इस स्थिति में प्रशासन भी अब अपनी भूमिका को लेकर अस्पष्ट है और अपनी डिफ़ॉल्ट स्थिति ( निजी अनुभवों पर आधारित नीति) की तरफ मुड़ लिया है। रणनीतियों और सीमाओं का निर्धारण किसी भी प्रशासक को अपनी समझ की बेहतरी का अहसास देता है, और ये शायद किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञता से पैदा हुए अहसास जैसा ही है। परंतु जब व्यक्ति, व्यक्तित्व, या वर्गीय चेतना की उपरोक्त अहसास में मिलावट हो जाये तो दम्भ जैसा भाव अक्सर पैदा होता है और इसे अन्य समझौतों (भ्रष्टाचार) से भी जोड़ा जा सकता है।

शक्ति के प्रयोग की स्पष्टता और समाज मे उसका आकर्षण बहुतेरों को प्रशासनिक सेवाओं की ओर आकर्षित करता है। परंतु, क्यूंकि काफी पढ़-लिख कर ही लोग इन सेवाओं में आ पाते है अतः आत्मिक विकास एवम सामाजिक बेहतरी भी प्रशासकों में एक प्रभावशाली उत्प्रेरक रहता है। अक्सर प्रशासनिक प्रक्रियाएं किसी बड़े परिवर्तन का समर्थन नही करती (पदानुक्रमित निर्णय श्रृंखला, और व्यक्तिगत भिन्नताएं कुछ बड़ा करने नही देती) जिसके चलते समाज की बेहतरी की चाहत अक्सर निराश होती है, और प्रशासकों को एक खांचे में ढालती है। सामाजिक बेहतरी की चाहत  रखने वाले प्रशासकों को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि प्रशासनिक हस्तक्षेप बड़े पैमाने पर तभी सफल हो सकते है जब ये व्यवस्थित अध्ययनों पर आधारित हो और व्यक्तिगत समझ का तत्व इनमें न्यूनतम हो (ताकि एक स्पष्ट एवम साझा प्रशासनिक समझ विकसित हो सके)।

बल्कि, विकासशील देशों को सुधार के लिए सदा पश्चिम की तरफ ही नही देखते रहना चाहिए, उन्हें अपने आप को अध्ययनों के लिए खोलना चाहिए। निश्चित तौर पे शुरुआत प्रशासकों के लिए कष्टकर होगी (ढका छिपा बाहर आएगा) परंतु कालांतर में ये स्वस्थ प्रशासनिक प्रक्रियाओं को बड़े पैमाने पर स्थापित करेगी, जो देश और समाज के लिए बेहतर होगा। इसके अतिरिक्त, चूंकि ये प्रशासनिक प्रक्रियाओं को स्पष्ट आधार देगा (जो व्यक्तिगत समझ में संभव नही), ये लेटरल एंट्री जैसी अपुष्ट नीतियों को खारिज करने में भी मददगार होगा।

अतः, निष्कर्ष रूप में कहें तो, जहां विकासशील देशों में व्यवस्थित अध्ययनों पर आधारित प्रशासनिक नीतियां अन्य संस्थाओं के स्वस्थ विकास को गति देने वाली होंगी, वहीं प्रशासनिक दम्भ ये इंगित करता होगा कि प्रशासन द्वारा पोषित संस्थागत विकास कहीं न कहीं गड़बड़ा गया है

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